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Thursday, May 1, 2025
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देशज पसमांदा मुसलमानों पर स्वदेश कुमार सिन्हा की कविता

भारतीय मुसलमान


वे मंगोल, तुर्क और उज़्बेक नहीं थे

वे फारस और समरकंद से भी नहीं आए थे

इसलिए मुग़ल भी नहीं थे,

उनके पूर्वज कौन थे, उन्हें नहीं पता

( indigenous Pasmanda Muslims)

उन्हें इतिहास में कोई रुचि भी नहीं

इसलिए कि वे मुसलमान हैं,

भारतीय मुसलमान।

उन्हें सिर्फ़ इतना मालूम है

उनके पुरखे यहीं दफ्न हैं,इसी ज़मीन में,

उनकी भी तमन्ना है

उनकी कब्र हो यहीं घने नहीं नीम तले,

वे अवधी, भोजपुरी,मैथिली, कोंकणी बोलते हैं

तमिल, मलयाली और तेलगु भी बोलते हैं

( indigenous Pasmanda Muslims)

वे उर्दू नहीं बोलते,

कोई कहता ,- अरे! ई तो राजा-महाराजा की बोली है

उन्हें अरबी-फ़ारसी भी नहीं पता

वे कहते हैं, ये तो धरम की ज़ुबान है,

इसलिए कि वे मुसलमान हैं,

भारतीय मुसलमान।

वे ताजमहल, कुतुबमीनार, लालक़िले,

और दक्षिण भारत के विशाल मंदिरों के कारीगर हैं,

वे अलीगढ़ के ताले,ढाका की मलमल और मुरादाबाद के बरतन हैं

चुनार की कालीन और लखनऊ के चिकन के कपड़े हैं,

( indigenous Pasmanda Muslims)

वे मुसलमान हैं,

भारतीय मुसलमान।

वे खेतों में खटते हैं

दोपहर को उनको दे जाती हैं रोटियांँ

कभी राधा कभी रेशमा,

कभी-कभी नमक से भी खा लेते हैं

और ठंडा पानी पीकर ख़ुदा को याद करते हैं,

नमाज़-रोज़ा उतना ही करते हैं

जितनी जरूरत है,

मौलाना की इस बात पर हँसते हैं,

कि धरम खतरे में है

वे हँसते हैं कि धरम कहीं खतरे में पड़ता है

खतरे में तो पड़ता है इन्सान,

वे कहते हैं मौलवी साहब यह अनाज लो

ख़ुद चैन से रहो और हमें भी रहने दो,

क्योंकि वे मुसलमान हैं,

भारतीय मुसलमान।

हवा का रुख़ बदल रहा है

उन्हें पता ही नहीं,

लोग कहते हैं, तुम पाकिस्तान चले जाओ

वे सोचते हैं,कैसा है पाकिस्तान

क्या वहाँ लोग दिनभर नमाज़ ही पढ़ते हैं

या उनकी कबाब हमारे लखनऊ

और बिरयानी हैदराबाद से भी लज़ीज़ है

वे इसके आगे सोच ही नहीं पाते,

फिर ठहाके लगाकर हँसते हैं

हम काहे जाएँ पाकिस्तान

का हम मोजाहिर हैं,

वे मुसलमान हैं,

भारत के मुसलमान।

उन्हें राम से डर नहीं लगता

लेकिन अब वे जय श्रीराम से डरते हैं,

उन्हें तो पता था सिर्फ़ राम-सीता की मुस्कुराती मोहक छवि

जिनके चरणों हनुमान की शान्त छवि,

लेकिन अब वे राम-हनुमान की रौद्र छवि

पर चकित होते हैं,

यह तो वे राम-हनुमान नहीं हैं

जिन्हें वे बचपन में देखते थे रामलीला में,

उन्हें पता है अब हवा बदल रही है

लेकिन वे नहीं बदले,

अभी भी अब्दुल-रहमान के बच्चे खेलते हैं

गलियों में राम-श्याम के बच्चों के साथ,

अभी भी वे हिन्दुओं के साथ मनाते हैं

होली, दीवाली और ईद,

दिलों में दीवारें डाली जा रही हैं

उन्हें पता है,

लेकिन अभी भी वे खुलकर हँसते हैं

अपनी अपार जिजीविषा के साथ,

क्योंकि वे मुसलमान हैं

भारतीय मुसलमान


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