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Thursday, May 1, 2025
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उन दस दुस्साहसी कहानियों का दिलचस्प किस्सा, जिसके बाद फैज ने प्रगतिशील लेखक संघ बनाया

फैज़ की नज्में ‘प्रतिरोध’ और ‘साझे प्रयास’ की जरूरतों को समझाती है, जिससे खास तबका परेशान रहता है। इस परेशानी के पीछे 1936 में पहली बार गठित ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के साथ फैज़ का जुड़ाव है। यह संस्था कैसे वजूद में आई इसका किस्सा दिलचस्प है, बीसवीं शताब्दी में लघु कहानियों की पतली की पुस्तिका ’अंगारे’ ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में हलचल पैदा कर दी। (Interesting tale of those ten)

देखते ही देखते राजनीतिक-साहित्यिक आंदोलन की सरगर्मी पैदा हो गई। जब पहली बार लखनऊ में 1932 में दस कहानियों वाली इस पुस्तिका का प्रकाशन हुआ तो हंगामा मच गया। ब्रिटिश अधिकारियों ने भारत के प्रमुख मुस्लिम मौलवियों और दकियानूसी संगठनों के दबाव में प्रतिबंध लगा दिया। तब केवल कुछ ही प्रतियां छपी थीं। लगभग सभी प्रतियां नष्ट कर दी गईं।

इस कहानी संग्रह के सभी चार लेखक मुस्लिम थे। धार्मिक रूढ़िवाद, पारंपरिक सामाजिक और यौन कुंठाओं की आलोचना, महिलाओं और गरीबों के प्रति आम नजरिए की आलोचना करने की वजह से उन पर हमले करने की कोशिशें हुईं। (Interesting tale of those ten)

लेखक सैयद सज्जाद ज़हीर, अहमद अली, रशीद जहां और महमूदुज्ज़फ़र उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों से ताल्लुक रखते थे। सज्जाद ज़हीर ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के संस्थापकों में से एक और अवध हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर सैयद वज़ीर हसन के बेटे थे। अहमद अली साधारण सरकार कर्मचारी के बेटे थे, जो अलीगढ़ विश्वविद्यालय और लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़े जिन्होंने बीए और एमए अंग्रेजी प्रथम श्रेणी से किया था।

रशीद जहां एक स्त्री रोग विशेषज्ञ थीं, जिनके पिता ने लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की थी जो बाद में सर सैयद अहमद खान के मोहम्मद एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज से संबद्ध हो गया। महमूदुज्ज़फ़र रामपुर के सत्तारूढ़ परिवार के प्रमुख सदस्य साहिबज़ादा सईदुज्जफ़र ख़ान के बेटे थे, जो एक डॉक्टर होने के साथ ही लखनऊ विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज के हेड थे। (Interesting tale of those ten)

हंगामे की वजह से चार युवाओं की यह मित्र मंडली खासी चर्चा में आ गई, जबकि कहानियां अपनी साहित्यिक और कलात्मक दृष्टि से भुला दी गईं। एक टिप्पणीकार ने कहा, “पुस्तक विधर्मी लेखन की सभी समस्याओं से ग्रस्त है। कहानियों में से कई की परिकल्पना खराब हैं और लेखन एक नाराजगी को जाहिर करने जैसा है, हालांकि महत्वपूर्ण बात यह है कि यह राजनीतिक आलोचना है।”

सज्जाद ज़हीर ने आत्मकथा ‘रोशनाई’ में लिखा है, “ इस संग्रह की अधिकांश कहानियों में गहराई और शांति का अभाव, कुछ स्थानों पर जहां ध्यान कामुकता पर था, डीएच लॉरेंस और जेम्स जॉयस का प्रभाव रहा ”। (Interesting tale of those ten)

हालांकि, कहानियां स्पष्ट रूप से दकियानूसी समाज को आईना दिखाने को थीं। मंटो से पहले, इस्मत चुगताई और मीरा-जी, जिन सभी की समाज के अशोभनीय माने जाने वाले मसला पर लिखने के लिए निंदा की गई, इसी खाने में चार युवा मित्र की कृति ‘अंगारे’ भी मानी जा सकती है। मुस्लिम परिवारों में परवरिश होने के बाद भी उन्होंने मुसलमानों की नाराजगी मोल ले ली, यह उनका दुस्साहस कहा जा सकता है।

अहमद अली की ” महावतनो की एक रात” (“ए नाइट ऑफ़ विंटर रेंस”) पर भी गौर किया जाना चाहिए: ” खुदा, रहम कर। अल्लाह गरीबों के साथ रहता है, उनकी मदद करता है, उनके दुख-दर्द को सुनता है। क्या मैं गरीब नहीं हूं? अल्लाह ने मेरी क्यों नहीं सुनी? अल्लाह का वजूद है या नहीं? और खुदा आखिर है क्या? वह जो कुछ भी है, वह बहुत क्रूर और बेहद अन्यायी है (Interesting tale of those ten)

वह हमारे बारे में परवाह क्यों नहीं करता है? उसने हमें क्यों बनाया? दुखों और मुसीबतों का सामना करने के लिए? यह कैसा न्याय है! वे अमीर क्यों हैं और हम गरीब हैं? इस सबका हिसाब जिंदगी के अंत के बाद मिलेगा, ऐसा मौलवी हमेशा कहते हैं। आखिर किसका जीवन? जिंदगी के बाद भी नरक का खौफ। मेरी परेशानियां यहां और अभी हैं, मेरी ज़रूरतें यहां और अभी हैं। ”

कहानियों में सबसे विवादास्पद शायद सज्जाद ज़हीर की कहानी ‘जन्नत की बशारत’ यानी’ विजन ऑफ़ हैवेन’ रही। जिसमें एक मौलवी जन्नत में बीस साल से कम उम्र की पत्नी से कौमार्य के आनंद का ख्वाब देखता है। कार्लो कोपोला ने उल्लेख किया है, ‘अंगारे’ का महत्व इसकी साहित्यिक गुणवत्ता में नहीं है। इससे सबकुछ अपरिपक्व था, लेकिन ‘ अंगारे ‘ उन लोगों को एक साथ लाया, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में ‘ प्रगतिशील लेखक आंदोलन ‘ की बुनियाद रखी और उर्दू साहित्य में क्रांति ला दी।

अमृतसर में सज्जाद ज़हीर पहली बार फैज़ से मिले, जहां वह एमएओ कॉलेज में लेक्चरर थे और साहिबज़ादा महमूदुज्ज़फ़र उप-प्रधानाचार्य थे। तभी से फैज़ ने ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन में अहम भूमिका निभाई। उनकी भागीदारी ने संगठन के विचारों को आकार के साथ दिशा दी।

अप्रैल 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखकों के पहले सम्मेलन में ऑल-इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन का गठन किया गया और साहित्य, संगीत, रंगमंच और सिनेमा के विविध विषयों को शामिल कर तेजी से प्रसार शुरू हो गया। (Interesting tale of those ten)

फैज़ के जीवनी लेखक के अनुसार, तीन दशकों तक प्रख्यात रूसी विद्वान डॉ. लुडमिला वासलीवा प्रगतिशील लेखक संघ पीडब्ल्यूए के माध्यम से सामााजिक व साहित्यिक आंदोलन में सक्रिय रहीं, उसका असर भारतीय उपमहाद्वीप में भी दिखता है।

ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन में अल्लामा इक़बाल, सरोजनी नायडू, मुंशी प्रेम चंद को उर्दू और हिंदी में संस्थापक में से हैं। जोश मलीहाबादी और प्रतिष्ठित भाषाविद मौलवी अब्दुल हक ने सज्जाद जहीर के प्रस्ताव पर प्रगतिशील लेखक आंदोलन के विचार का समर्थन किया।

अल्लामा इक़बाल और सरोजिनी नायडू उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने सज्जाद ज़हीर द्वारा प्रसारित एआईपीडब्ल्यूए के मसौदा घोषणापत्र पर अपने हस्ताक्षर किए। एसोसिएशन के दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में मुख्य वक्ता रवींद्रनाथ टैगोर। (Interesting tale of those ten)

‘नुक्कड़ ए वफा’ में फैज़ ने खुद को ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन के साथ अपने सहयोग पर कहा है: ”अमृतसर में मैं अपने दोस्तों साहिबज़ादा महमूदुज्ज़फ़र और उनकी पत्नी राशिद जहां से मिला। फिर प्रगतिशील लेखक संघ का जन्म हुआ, मजदूरों के आंदोलन शुरू हुए और ऐसा लगा जैसे अनुभव के नए बगीचे (दबिस्तान ) मिल गए हों। इस दौरान मैंने जो पहला पाठ सीखा, वह यह था कि इतनी बड़ी कायनात में खुद का वजूद की पहचान कराने भर की कोशिश महत्वहीन है।”

फैज़ इस नज़रिए से कभी नहीं हटे। उनकी नज्मों में जिंदगी पर दुनिया की घटनाओं और हालात का प्रतिबिंब साफ नजर आता है। वह कहते हैं, आप किसी के दिमाग में एक मिनट का बदलाव भी लाते हैं तो आपने व्यवस्था के बदलाव में अपनी भूमिका निभाई होती है। कविता इस काम को काफी हद तक कर सकती है कविता के लिए नारेबाजी, चिल्लाने और राजनीतिक बयानों जैसी सूरत नहीं होती। (Interesting tale of those ten)


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