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Wednesday, April 30, 2025
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दृश्यम 2 के लिए क्या रहीं चुनौतियां

दिनेश श्रीनेत

‘दृश्यम’ जहां खत्म होती है, लेखक, निर्देशक के लिए एक चुनौती भी छोड़ जाती है कि इससे आगे क्या बिना दोहराव लाए कोई रोचक कहानी बुनी जा सकती है? ‘दृश्यम 2’ न सिर्फ इस चुनौती का सामना करती है बल्कि क्लाइमेक्स तक पहुँचते-पहुँचते दर्शकों को बांधे रखने में पिछली फ़िल्म से आगे निकल जाती है। (Many challenges Drishyam 2)

मैं ये नहीं कह सकता कि ‘दृश्यम’ और उसका सीक्वेल मुझे सिर्फ इसलिए पसंद आया कि ये दोनों बेहतरीन थ्रिलर फ़िल्में हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि ये दोनों फ़िल्में नैतिक-अनैतिक, सही-गलत, न्याय जैसे बुनियादी मूल्यों को बिल्कुल नई रोशनी में देखती हैं। यह जीवन और किरदारों का कोई स्याह और उजला पक्ष नहीं चुनती बल्कि दोनों के धुंधलके में आवाजाही करती रहती है।

अपराध का जीवन के मूलभूत प्रश्नों से गहरा रिश्ता रहा है, तभी एक महान दार्शनिक उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिश्मेंट’ को बहुधा अपराध कथा की तरह याद किया जाता है। इसका नायक तेज है, शातिर है मगर वह अंततः एक साधारण इनसान है। उसका संघर्ष किसी महान उद्देश्य या आदर्शों के लिए नहीं है बल्कि बुनियादी ‘सरवाइल’ के लिए है। वह सिर्फ इस बात के लिए लड़ता है कि मुसीबत में फंसे अपने परिवार को बाहर कैसे निकाले। उसके परिवार में तीन स्त्रियां हैं, उसकी पत्नी और दो बेटियां; परिवार के ये सभी सदस्य हालात का शिकार हैं। (Many challenges Drishyam 2)

यदि उन्होंने जानबूझकर कोई अपराध किया होता तो फ़िल्म किसी ‘पोएटिक जस्टिस’ की तरफ नहीं बढ़ पाती और न दर्शक खुद को नायक और उसके परिवार से जोड़ पाते। दोनों ही फ़िल्में जीवन के एक बड़े पक्ष की तरफ ले जाती हैं, जहां सही और गलत के बीच की लकीर अस्पष्ट हो जाती है। हर पक्ष का अपना सत्य होता है और हर पक्ष की अपनी बेइमानियां और झूठ। इस फिल्म की खूबी यह है कि यहां असत्य भी सच्चाई के सामने सीना तानकर खड़ा है क्योंकि जिस बुनियाद पर सत्य खड़ा है, वह अर्धसत्य है।

उसकी बुनियाद पर दिया जाने वाला न्याय विजय सलगांवकर (अजय देवगन) और उसके परिवार के लिए अन्याय में बदल जाता है। फिल्म में एक जगह विजय का मोनोलॉग है, “एक दुनिया वो होती है जो हमारे भीतर होती है, एक दुनिया वो होती है जो हमारे बाहर होती है और एक दुनिया वो होती है जिसे हम इन दोनों के बीच बनाते हैं।” ‘दृश्यम’ के दोनों पार्ट की खूबी यह है कि इसने बिल्कुल विपरीत पक्षों के बीच की लकीरें धुंधली कर दी हैं या लगभग मिटा दी हैं। (Many challenges Drishyam 2)

इस फ़िल्म को इसी रूप में देखा जाना चाहिए- चाहे वह न्याय और अन्याय के बीच की रेखा हो, चाहे सच और झूठ के बीच और चाहे कल्पना और सत्य के बीच। बाकी थ्रिलर का अपना एक रोमांच है मगर अपने बुनियादी दर्शन के बिना ‘दृश्यम’ और ‘दृश्यम 2’ साधारण फ़िल्में बनकर रह जातीं। सीक्वेल कहानी को दोबारा से स्टैब्लिश करने लिए समय लेता है और चमत्कारिक रूप से फ़िल्म के अंत में सारे डॉट्स कनेक्ट होते हैं।

पहली कड़ी के मुकाबले इस बार कहानी ज्यादा नाटकीय है मगर इसका वैचारिक पक्ष और कहानी कहने की कला इतनी मजबूत है कि ये नाटकीयता खलती नहीं। ‘दृश्यम 2’ देखी जानी चाहिए, सिर्फ इसलिए नहीं कि एक कहानी को अच्छे तरीके से बयान किया गया है बल्कि इसलिए भी कि यह बिना जजमेंटल हुए, ज़िंदगी, लोगों और हालात को देखना सिखाती है।(Many challenges Drishyam 2)


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