अब्दुल्लाह मंसूर
मुस्लिम समाज में जातिवादी व्यवस्था पूरी तरह से मौजूद है पर आज तक किसी सैयद ने सैयदवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। उन्होंने इस आधार पर पसमांदा समाज की ज़िन्दगी में हर पहलु पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ बात नहीं की है। यह कहना न होगा कि ऊँच-नीच और सामाजिक बहिष्कार भारतीय समाज के जातिवाद का एक घिनौना चेहरा है। जहाँ ब्राह्मण न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र के अनन्य संरक्षक के रूप में सर्वोच्च स्थान रखते हैं, बल्कि ज्ञान के एकमात्र प्रदाता के रूप में श्रेणीबद्ध असमानता में भी सबसे ऊँचे पायदान पर विराजमान हैं। (Is Syedism itself Brahminism?)
यह उन्हें स्वाभाविक रूप से अन्य सभी मनुष्यों से श्रेष्ठ बनाता है, इतना श्रेष्ठ कि वे पूरी तरह से एक अलग प्रजाति (जाति) की पहचान रखते हैं। जिस तरह शुद्र जन्म से ही कथित तौर पर निष्कृष्ट् माने जाते हैं उसी तरह ब्राह्मण जन्म से ही कथित तौर पर शुद्ध माने जाते हैं। सैयदवाद/ब्राह्मणवाद यथास्थितिवादी विचारधारा है, जो पूरी तरह से उन कुलीनों के लिए उपयुक्त है जो अपनी सामाजिक स्थिति, शक्ति और विशेषाधिकार को बनाए रखना चाहते हैं। इस तरह से ब्राह्मणवाद एक सवर्ण प्रभुत्व संस्कृति के रूप में काम करती है।
इस बात को समझें कि कोई भी व्यक्ति जो जन्म आधारित असमानता के इस पदानुक्रम को अपनी जाति, पंथ या लिंग की परवाह किए बिना इस पदानुक्रमित आदेश की सहमति, समर्थन या औचित्य देता है, वह सैयदवादी है, ब्राह्मणवादी है। बाबा साहब अंबेडकर ने अपने लेख में यह सिद्ध किया है कि कैसे अंतर्जातीय विवाह को निषिद्ध करके इस जातिप्रथा को ब्राह्मणों ने मरने नहीं दिया। मुस्लिम समाज में भी ‘कफ़ू’ का सिद्धांत यह बताता है कि कौन किस जाति में शादी कर सकता है और किस जाति में नहीं! कौन किस जाति के बराबर है और कौन उससे नीचा है! (Is Syedism itself Brahminism?)
कुफ़ू एक ज़रिया, एक हथियार था जिसके द्वारा यह जातिवादी उलेमा चाहते थे कि इस्लाम में नस्ल/वंश परंपरा वाली बात को क़ानूनी (इस्लामी) मान्यता दे सकें। आप हनफ़ी मसलक के सबसे बड़े मदरसों में से एक देवबंद की आधिकारिक वेबसाइट पर कुफू का मसला देखिए। प्रोफेसर मसऊद आलम फलाही साहब अपनी किताब ‘हिंदुस्तान में ज़ात पात और मुसलमान’ में लिखते हैं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जिसे इस्लामी शरीयत और भारतीय मुसलमानों की आगुवा संस्था माना जाता है। वह भी ऐसी शादियों को वैध नहीं मानता। “एक अरब, ग़ैर-अरब से श्रेष्ठ है, अंसारी, दर्ज़ी, धोबी से सैयद-शेख़ श्रेष्ठ हैं, खानदानी मुसलमान, नए हुए मुसलमान से श्रेष्ठ हैं आदि।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी ऐसी शादियों को वैध नहीं मानता। बोर्ड स्वयं ग़ैर-कुफु (जो बराबर ना हो) यानि एक अशराफ (शरीफ/उच्च/ विदेशी जाति के मुस्लिम) को एक पसमांदा (रज़िल(मलेछ)/निम्न/नीच/देशी जाति) के मुस्लिम से हुए विवाह को न्याय संगत नहीं मानता है और इस प्रकार के विवाह को वर्जित करार देता है।” [पेज नं०-101-105,237-241, मजमूए कानूने इस्लामी, 5वाँ एडिशन, 2011, प्रकाशक आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, 76A/1, ओखला मेन मार्किट, जामिया नगर, नई दिल्ली-110025, इंडिया]
एक हदीस देखें- “लोगो! मैं तुम में ऐसी चीज़ छोड़कर जा रहा हूँ कि अगर मज़बूती से इसे थामे रखोगे तो गुमराह (पथभृष्ट) ना होंगे, और वह ईश्वर की किताब (क़ुरआन) है, और मेरे घर वाले मेरी औलाद हैं। (हदीस न०2408, तिर्मिज़ी) [मुहम्मद (स० अ० व०) के सबसे छोटी बेटी फातिमा (र०अ०) के छोटे बेटे का नाम हुसैन (र०अ०) जिसकी नस्ल/ वंश को सबसे उच्च कोटि का सैयद माना जाता है।] अशराफ़ उलेमाओं ने ख़ुद को नबी (स.अ.) के खानदान से जोड़ कर झूठी हदीसें गढ़ीं। उन्होंने भी सैयद की सेवा करने के नाम पर मिलने वाली जन्नत के किस्से गढ़े, अगर सैयद गरीब है तो यह उस सैयद का इम्तिहान नहीं है बल्कि इम्तिहान हमारा है कि हम उस सैयद की कितनी सेवा कर पाते हैं। (Is Syedism itself Brahminism?)
यह भी ज्ञात रहे कि हदीसों का संकलन नबी (स.अ.) की वफ़ात के 100 साल बाद शुरू हुआ है। यह वही वक़्त था जब सत्ता के लिए शिया और सुन्नीयों के बीच जंग हो रही थी। जब यह बताया जाता है कि खलीफा सिर्फ कुरैश बन सकते हैं तब दरअसल यह बताया जा रहा होता है कि खिलाफत पर सिर्फ एक कबीले/जाति का दैवीय् अधिकार है। राज्य को ईश्वर ने बनाया इसलिए राजा ईश्वर का दूत है, ‘ज़िल्ले इलाही’ है। कोई भी उसकी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकता।
अगर यह साबित कर दिया जाए कि नबी (स.अ.) ने किसी ख़ास ख़ानदान या क़बीले को सत्ता सौंपी थी तो उसकी दावेदारी ईश्वरीय हो जाएगी क्योंकि नबी (स.अ.) ईश्वर के दूत थे। अब कोई भी आम मुसलमान हदीस का नाम सुन कर शांत हो जाएगा और नहीं पूछेगा कि कैसे तुमने इस्लाम के बुनियादी उसूल ‘मसावात’ (समानता) के ख़िलाफ़ हदीस गढ़ दी? जो इस्लाम कहता है कि– “इस्लाम मे कोई वंश परम्परा नहीं है!” वहाँ तुमने वंश परंपरा को मज़बूत कैसे कर दिया? पर सवाल करने की यह हिम्मत करता कौन? (Is Syedism itself Brahminism?)
क्यों अशराफ जातियों को ही मुसलमानों का नेतृत्व दिया जाना चाहिए? हम मुसलमानों के नाम पर बनाई गई सारी संस्थाएं और राजनीतिक पार्टियों को देख सकते हैं कि इनमें मुसलमान के नाम पर चुने जाने वाले व्यक्ति की जाति अधिकतर अशरफ ही होती है। क्यों सारी प्रमुख मज़ार/दरगाह सैयद पीरों की हैं? जैसे अंग्रेज़ों ने अपनी सत्ता बनाने के लिए अपने कुछ मानसिक गुलाम पैदा किए जो रंग और चमड़ी से भारतीय हों और सोच से अंग्रेज़। ठीक ऐसे ही अपनी बात की वैधता के लिए इन अशराफ़ मौलानाओं को अब पसमांदा समाज के कुछ ग़ुलामों की आवश्यकता थी जो इनके मदरसों से इनकी किताबों को पढ़कर निकलें और इस बात को पसमंदा समाज को समझा सकें।
कमाल की बात यह है कि ऐसा हुआ भी! कई सौ-दो-सौ सालों तक अशराफ़ मौलानाओं के फ़तवों और किताबों को पसमांदा मुसलमान सीने से लगा कर घूमता रहा। इन मदरसों के पसमांदा छात्र अपने समाज और जाति के प्रति अपमान सूचक गाली को आज भी ईश्वर की वाणी और आदेश समझ पढ़ रहे हैं। मौलाना मसूद आलम फ़लाही की किताब ‘हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान’ इस मायने में एक मील का पत्थर साबित हुई। इस किताब ने पोज़ीशन (पद) की लड़ाई को विचार के स्तर से उठा कर मनोविज्ञान के स्तर पर पहुँचा दिया। (Is Syedism itself Brahminism?)
याद रहे आप का मनोविज्ञान ही आप के व्यवहार को निर्देशित करता है, उदाहरण के लिए सैयदवाद/ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है। इस विचारधारा ने जो संस्कृति बनाई उसमें जातिवाद, छुआछूत, वर्ण व्यवस्था थी/है। हज़ारों सालों तक लोग मानते रहे कि वर्ण नाम की कोई चीज़ होती है और असमानता प्राकृतिक है। लेकिन जैसे-जैसे दलित चेतना तथा बहुजनवाद का उदय हो रहा हैं, वैसे-वैसे समाज एवं संस्कृति बदल रही है और उसी के अनुरूप हमारा मनोविज्ञान भी बदल रहा है। वर्चस्व के विरुद्ध लड़ाई विचार के स्तर से ही शुरू होती है।
यही वजह है कि जब मौलाना मसऊद आलम की किताब आई तो आशराफ़ों में ख़लबली मच गई कि उनके वर्चस्व को चुनौती किसने दी? अभी तक पसमांदा मौलानाओं का काम उन किताबों को सिर्फ पढ़ना और अमल करना था न कि उन किताबों में लिखे वाहियात तर्कों को चुनौती देना। अशराफ़ जातियों के पास यही विकल्प है कि वह ‘हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान’ किताब को हज़म कर लें, यानी आत्मसात कर लें। इतिहास में हम यह देखते हैं कि जाति प्रथा के विरुद्ध जो भी आंदोलन खड़े हुए उन सभी आंदोलनों को ब्राह्मणवाद ने आत्मसात कर लिया और इस तरह ब्राह्मणवाद पहले से ज़्यादा मज़बूत हो कर उभरा। (Is Syedism itself Brahminism?)
सैयदवाद के लिए शायद इतिहास में यह पहला मौका है जब पसमांदा जातियों के कुछ बुद्धिजीवी उनकी सत्ता के खिलाफ़ खड़े हो रहे हैं। ऐसे सैयदवाद इन बुद्धिजीवी के खिलाफ़ अंधभक्त और ग़ुलाम पसमांदा उलेमाओं की फ़ौज उतार रहा है जो अपनी ग़ुलामी के सारे तर्क को स्वीकार कर, हर पसमांदा-तहरीक को गैर इस्लामी, मुस्लिम समाज को तोड़ने की साजिश करार देते हुए इन बुद्धिजीवियों को भाजपा और संघ का एजेंट साबित कर रहे हैं। मुस्लिम समाज में आज तक सैयदवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं होता क्योंकि जब आप किसी के वर्चस्व में होते हैं तो आपको लगता ही नहीं है कि आपके ऊपर किसी की कोई सत्ता थोपी गई है। जो भी व्यवस्था बनी है या बनाई गयी है, उसे आप अपने लिए बेहतर मानते हैं। तब सत्ता आप के लिए एक ‘विश्वास तंत्र’ में बदल जाती है।
हमें सबसे पहले पसमांदाओं को अशराफ़ों की आध्यात्मिक ग़ुलामी से निकालना पड़ेगा। पसमांदा समाज की चेतना अभी अविकसित अवस्था में है। जब तक चेतना का विकास नहीं होता तब तक उनका न तो कोई संगठन बन सकता है और न ही कोई आंदोलन खड़ा हो सकता है। यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि पसमांदा आंदोलन का मानना यही है कि हमारा समाज धार्मिक समाज है तो इसे पहले धार्मिक तरीके से ही समझाया जा सकता है। कठोर पूँजीवादी संरचना में भी श्रम और श्रमिकों के लिए धर्म में जगह बना ली गई। ज़कात, फ़ितरा, सूद (अर्थात ‘ब्याज’ जो कि इस्लाम में लेना और देना दोनों ही हराम है) आदि की व्यवस्था द्वारा इस्लाम धर्म को श्रम और श्रमिकों के अनुकूल बना दिया। (Is Syedism itself Brahminism?)
यही वजह है कि पसमांदा जातियों का धर्म के प्रति वैसा गुस्सा नज़र नहीं आता जैसा गुस्सा शूद्र और दलित जातियों का हिन्दू धर्म के प्रति है। जब तक पसमांदा समाज में जातिय चेतना पैदा नहीं होती तब तक सैयदवादी स्थापित सत्ता के विरुध किसी प्रकार का कोई आंदोलन कोई क्रांति नहीं आ सकती। पसमांदा आंदोलन मानता है कि अगर कोई वकील किसी अपराधी को क़ानूनी किताब के ज़रिए बचाने की कोशिश करता है तो दूसरा वकील उस अपराधी को सज़ा दिलाने के लिए उसी क़ानूनी किताब का सहारा लेता है न कि उस किताब को फाड़ कर फेंक देता है। मतलब इस वक़्त पसमांदा आंदोलन की ज़रूरत पसमांदा नज़रिए से इस्लामी धार्मिक ग्रन्थों की व्याख्या है।
(राउंड टेबल इंडिया से साभार)