जिस अफ्रीकन स्वाइन फीवर ने पूर्वाेत्तर के भारतीय राज्यों में कोहराम मचा दिया और वहां के प्रमुख पशुधन के लगभग 90 प्रतिशत को मार डाला, उसी बीमारी ने बाकी भारत में, खासतौर पर उत्तर भारत में अनुसूचित जाति में आज भी सामाजिक तौर पर अछूत होने के अपमान को झेल रहे लोगों को निशाना बनाया। हिंदुत्व की राजनीति के दौर में जब लगातार ये दावा किया जा रहा कि देश में विकास की लहर चल रही है ये जानना जरूरी है कि पिछले कुछ समय में अनुसूचित जाति के लोगों ने अफ्रीकन स्वाइन फीवर के दंश को किस प्रकार झेला है। (African Swine Fever)
पिछले कुछ वर्षों में हिंदू धर्म के अनुयायियों के आराध्य, भगवान हनुमान के गुस्सैल चरित्र को रूपांतरित करने वाला रुद्र हनुमान का झंडा सांप्रदायिकता के मुख्य प्रतीक के रूप में उभरा है । दक्षिणी दिल्ली के वसंत विहार क्षेत्र में स्थित कानूनी रूप से अनाधिकृत स्वच्छकार बस्ती, कुली कैंप में प्रवेश करते ही वाल्मीकि मंदिर में रुद्र हनुमान के झंडे को राष्ट्रीय ध्वज के साथ फहराता हुआ देखकर प्रारंभिक रूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाकी के उत्तर भारत की ही तरह इस दलित बस्ती के नागरिकों के बीच भी सांप्रदायिकता को भारतीय राष्ट्रवाद के रूप में परोसने का धुर दक्षिणपंथी प्रोजेक्ट जारी है।
रुद्र हनुमान के झंडे के अतिरिक्त गौ रक्षा आदि का संदर्भ भी वर्तमान समय में विभिन्न सांप्रदायिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु रहा है, लेकिन कुली कैंप और पास की ही एक दूसरी दलित बस्ती, कुसुमपुर पहाड़ी, में रहने वाले नागरिकों का जीवन मध्यमवर्गीय हिंदुओं की तरह सांप्रदायिकता की चपेट में होने के बावजूद गाय नहीं बल्कि एक दूसरे जीव- सुअर- के विमर्श पर टिका हुआ है।
मई 2022 तक सुअर कुसुमपुर पहाड़ी एवं कुली कैंप में रहने वाले अनुसूचित जाति के स्वच्छकार समुदाय के जीवन का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे, लेकिन 2022 में दिल्ली व दूसरे अन्य राज्यों में अफ्रीकन स्वाइन फीवर जैसी घातक बीमारी के फैलने के बाद कुसुमपुर पहाड़ी मोहल्लों में लगभग सभी सुअरों की मृत्यु हो गई और वर्तमान में पशुधन के अभाव में इन दलितों की आर्थिक स्थिति लगातार जर्जर होती जा रही है। (African Swine Fever)
कुसुमपुर पहाड़ी मे रहने वाले 55 वर्षीय लखमी वाल्मीकि पेशे से सफाई कर्मचारी हैं और कुसुमपुर पहाड़ी के निवासी हैं। वर्ष 2022 में मई से अगस्त माह के बीच लखमी वाल्मीकि के करीब 55 सुअर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। लखमी जी बताते हैं कि उनके सुअरों को पहले तो तेज बुखार हुआ और उसके बाद उनकी मृत्यु हो गई।
लखमी वाल्मीकि ने अपने पूरे जीवन में पशुधन को कभी इतनी तेजी से किसी अन्य बुखार से मरते नहीं देखा था जिसके कारण सुअरों के मृत शरीरों का रंग नीला पड़ जाता हो। वह बताते हैं कि सामान्यतः सुअरों की सारी बीमारियां पास में स्थित मोती बाग पशु चिकित्सालय में मिलने वाली दवाइयों से सही हो जाती थी लेकिन 2022 में बीमारी अभूतपूर्व रूप से बेहद भीषण थी जिसके प्रकोप से उनका एक भी सुअर नहीं बचा।
2022 में दिल्ली की दलित बस्तियों में पशुधन के एकतरफा साफ हो जाने से लखमी वाल्मीकि जैसे पशुपालकों की आर्थिक रूप से कमर टूट गई थी और वर्तमान में भी अफ्रीकन स्वाइन फीवर के वापस लौट आने के डर के चलते पशुओं की अनुपलब्धता के कारण उनकी आर्थिक स्थिति नाजुक बनी हुई है। (African Swine Fever)
वर्ष 2022 में उत्तर भारत में लंपी बीमारी के संक्रमण से जब गायों की मृत्यु होना शुरू हुई थी तब प्रशासन ने सापेक्षिक रूप से थोड़ी फुर्ती दिखाई थी। चूंकि सुअर पालन मुख्य रूप से सिर्फ कथित वाल्मीकियों का पारंपरिक व्यवसाय रहा है, अफ्रीकन स्वाइन फीवर के मामले में प्रशासन ने न तो मुस्तैदी से कोई जागरुकता अभियान चलाया और न ही अफ्रीकन स्वाइन फीवर के वायरस से बचाने के लिए कोई चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध कराईं।
कुसुमपुर पहाड़ी पर रहने वाले अन्य दलितों से उस बीमारी के चिकित्सकीय लक्षणों पर चर्चा करते हुए, जिससे उनके सुअर मरे थे, यह स्पष्ट होता है कि सभी मृत सुअर अफ्रीकन स्वाइन फीवर से संक्रमित थे। इसके बावजूद करीब दो साल बीत जाने के बाद प्रशासन की तरफ से किसी भी जागरूकता अभियान के न चलाए जाने के कारण कुसुमपुर पहाड़ी में कोई भी दलित इस बात को समझ पाने में असमर्थ हैं कि आखिर उनके सुअरों की अकाल मृत्यु का कारण क्या था।
वर्तमान में जब हमारे चारों ओर दक्षिणपंथी सांप्रदायिक सत्ता पशु अधिकारों के विषय के अंतर्गत गाय की रक्षा जैसे मसलो के माध्यम से या फिर शाकाहारी बनाम मांसाहारी के विमर्श से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने का प्रयास लगातार कर रही है दलितों के पशुधन का अफ्रीकन स्वाइन फीवर से भारी नुकसान होने के बावजूद इस रोग के प्रति व्याप्त उदासीनता इस बात का प्रमाण है कि कैसे आज भी बहुसंख्यक होने के बावजूद दलितों के जीवन की भीषण समस्याएं मुख्यधारा में चर्चा का विषय नहीं बन पाती हैं। (African Swine Fever)
हिंदी पट्टी में पारंपरिक रूप से अनुसूचित जाति के स्वच्छकार सुअरों की दो प्रजातियां पालते रहे हैं। पहली प्रजाति ऑस्ट्रेलियन सुअरों की है, जिनका पालन व्यावसायिक स्तर पर फार्म में किया जाता है। दूसरी प्रजाति जंगली सुअरों की है, जिनको लखमी वाल्मीकि जैसे निर्धन दलित इसलिए पालते है, क्योंकि इस प्रजाति के सुअरों को किसी बाड़े की जरूरत भी नहीं होती और उनकी अधिक देखभाल भी नहीं करनी पड़ती। अंत में वयस्क हो जाने पर ये उचित मूल्य पर बिक भी जाते हैं।
उदाहरण के तौर पर लखमी वाल्मीकि अपने सुअरों को मात्र बचा हुआ खाना दिया करते थे, जिसको वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रावास से एकत्र करते थे, जहां वे सफाई कर्मचारी के रूप में पंद्रह हजार मासिक की तनख्वाह पर कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त उनके सुअर आसपास के जंगलों में घूम-घूमकर ही भोजन तलाश लेते थे।
बचपन से ही अस्पृश्यता झेलते आ रहे अशिक्षित लखमी वाल्मीकि अफ्रीकन स्वाइन फीवर का संज्ञान लेने की जगह सरकार की मंशा पर संशय व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘शायद कुसुमपुर पहाड़ी के पास में रहने वाले रईसों को उनके सुअरों का आजादी से खुले में घूमना रास नहीं आया इसलिए उनकी शिकायत पर सरकार ने किसी केमिकल का छिड़काव कराकर दलितों के पशुधन को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया।’ (African Swine Fever)
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सरकार के प्रति लखमी वाल्मीकि की संदिग्ध निगाह इस बात की ओर इशारा करती है कि पैर पसारती सांप्रदायिकता के बावजूद दलितों की लोकतांत्रिक नागरिक चेतना में अभी पूरी तरीके से सेंध लगना बाकी है। साथ ही साथ लखमी जी का उपरोक्त कथन इस बात की ओर भी इशारा है कि दलित टोलों में रहने वाले नागरिकों को नियमित रूप से सांप्रदायिक डोज देने की बजाय उनको अफ्रीकन स्वाइन फीवर जैसे रोगों के प्रति नियमित रूप से जागरूक करने की आवश्यकता है।
(लेखक जेएनयू में समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं)
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