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Wednesday, April 30, 2025
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चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ – संघर्षशील अम्बेडकरवादी नेता का उदय

Payal Srivastava

2024 के लोकसभा चुनाव से पहले हम अक्सर ये सुनते थे – मोदी नहीं तो कौन? पर इस चुनाव के परिणाम ने इस सवाल का जवाब बहुत साफ़ कर दिया है। इस चुनाव की एक ख़ास बात रही कि जनता ने ऐसे लोगों को संसद तक पहुँचाया जो उनके बीच रह कर उनके मुद्दों को समझ रहे थे, ना कि उन्हें जिन्होंने तमाम संस्थानों जैसे मीडिया, चुनाव आयोग इत्यादि पर नियंत्रण करके उन मुद्दों पर चुनाव लड़ा जिससे आम लोगों की समस्या का कोई समाधान नहीं होना था। जनता द्वारा चुना गया हर उम्मीदवार अपने आप में मोदी जी का विकल्प है और यही लोकतंत्र है। इस विकल्प में मल्लिकार्जुन खड़गे से लेकर राहुल गांधी महुआ मोइत्रा, संजना जाटव, इकरा हसन जैसे कई नाम हो सकते हैं लेकिन हम इस लेख में उस सांसद की बात करेंगे जिसने हर संभव मौक़े पर सरकार के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाई, आलोचना के शिकार रहे और उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति को वापस से जिंदा किया, आप हैं चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’। (Chandrashekhar Azad Ravan)

चंद्रशेखर – जन-नायक से नेता

भारतीय राजनीति में चंद्रशेखर एक मील का पत्थर सिर्फ़ इसलिए नहीं हैं कि वो दलित समाज से आते हैं। उनके विचारों में बाबा साहेब की विचारधारा है जो समाज के हर शोषित वर्ग के लिए आवाज़ उठाना जानता है। उच्च जाति द्वारा दलित वर्ग की जो छवि रखी जाती है, जिसके अनुसार दलित अनपढ़, कमजोर, बदसूरत ही होता है, इस छवि को चंद्रशेखर रद्द करते हुए दलित युवा के उस व्यक्तित्व को सामने रखते हैं जो बुद्धिजीवी, सशक्त और शोभायमान है। वो ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब, कांशीराम और मायावती तक की दलित राजनीति और दलित विमर्श को बखूबी समझते हैं और सवर्ण राजनीति की भी समझ रखते हैं जिसकी वजह से भारतीय राजनीति में उनकी सक्रियता महत्त्वपूर्ण योगदान साबित हो सकती है। (Chandrashekhar Azad Ravan)
उत्तरप्रदेश के सहारनपुर से आने वाले चंद्रशेखर आज़ाद बाबा साहेब की फोटो और संविधान के साथ अलग अलग प्रोटेस्ट व आंदोलनों के साथ खड़े होते देखे गये हैं जैसे जामा मस्जिद में नागरिकता अधिनियम के ख़िलाफ़, किसान आंदोलन के समर्थन में, अयोध्या के धर्म संसद/सभा के विरोध में बौद्ध धर्म का प्रचार करते हुए, हाथरस गैंग रेप के मामले में सरकार के विरोध में इत्यादि। उनकी आवाज़ को दबाने के लिए उन्हें जेल भी भेजा गया और रोचक बात ये है कि उन पर बीजेपी एजेंट होने के भी आरोप लगते रहे। आरोप या प्रशंसा के इन बुलबुलों के पीछे चंद्रशेखर ज़मीनी स्तर पर भी अपनी पहचान बनाने में लगे रहे जिनकी वजह से वह नायक से नेता बनने के सफ़र को तय कर सके। उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित-बहुजन बच्चों की शिक्षा पर भीम आर्मी के साथ मिल कर काम किया। कांशीराम जी की तरह वो गाँव गाँव घूम कर बहुजन जनता की समस्याओं को सुलझाने के लिए उनके बीच उपलब्ध रहे। वकालत की पढ़ाई से जो जागरूकता उनमें आई उसे दलित भाई-बहनों तक पहुँचाने का काम किया जिससे वो अपने ऊपर होने वाले अत्याचार के विरुद्ध क़ानूनी कार्यवाही को तकनीकी स्तर पर सीख सकें।

मायावती और आज़ाद

इन सामाजिक कार्यों और एक मज़बूत दलित-नायक होने के बावजूद उन्होंने ख़ुद को राजनीतिक नेता होने से दूर ही नहीं रखा बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के नेतृत्व का समर्थन किया। हालाँकि उनके इस विचार में 18वीं लोकसभा के चुनाव आते आते काफी तब्दीली आई और दलित राजनीति के विकास के लिये उन्होंने ख़ुद चुनावी मैदान में उतरना सही समझा। इंडियन एक्सप्रेस में दिये गये उनके एक इंटरव्यू के अनुसार वो मायावती या बसपा के विरोधी प्रत्याशी नहीं है बल्कि बसपा के राजनीतिक निष्क्रियता के परिणामस्वरूप जो जगह ख़ाली हुई है उसका विकल्प हैं। चंद्रशेखर आज़ाद को फिर भी बसपा की तरफ़ से उनकी विचारधारा के आधार पर कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। अब सवाल ये है कि क्या उत्तर प्रदेश में वाक़ई दलित राजनीति को दिशा देने का काम चंद्रशेखर की पार्टी आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) को लोगों ने सौंप दिया है? और इसके पीछे वजह क्या रही?

मोदी और आज़ाद

ये सच है कि 2014 से लोगों के दिमाग़ में हिंदुत्व के बीज को खाद पानी मिलता रहा। हिंदुत्व विचारधारा के इर्द गिर्द एक स्वप्नजाल बुना गया जिसमें हिंदुओं के पास सत्ता की सामूहिक शक्ति है, वो बलवान हैं और विकास के मार्ग पर अग्रसर हैं। इस अच्छे दिन की लालसा में बहुजन वोटरों ने भी बीजेपी का साथ दिया। सज्जन कुमार और सुधा पाई की पुस्तक ‘माया मोदी आज़ाद’ के अनुसार दलित बहुजन जनता का विश्वास कॉंग्रेस की गांधीवादी दलित राजनीति से उठ चुका था, वो सवर्ण जाति के नेतृत्व में दलित राजनीति को होने वाले नुक़सान के प्रति जागरूक हो चुके थे और यही वह दौर भी था जब कॉंग्रेस का पतन हो रहा था। 1984 में उत्तर प्रदेश में बसपा रेडिकल एंटी-कास्ट मूवमेंट के तौर पर उभर के सामने आई। 90 के दशक में बसपा दो बार सत्ता में भी आई और बहुजन जनता में आत्मविश्वास और उम्मीद का एक महत्त्वपूर्ण कारण भी बनी। लेकिन 2000 के बाद पार्टी और दलित मूवमेंट दोनों कमजोर होने लगे और दलित उप- जातियों का एक सेक्शन बसपा से दूर होता गया। 2014 के उपरांत ये दलित उप-जातियाँ बीजेपी के पास सिर्फ़ भौतिक सुविधाओं के लिए नहीं गई अपितु बीजेपी ने उनके अलग इतिहास, संतों, धार्मिक व स्थानीय परंपराओं को इज्जत तथा मान्यता प्रदान कर उन्हें दूसरी वजहें भी दीं। (Chandrashekhar Azad Ravan)
अंबेडकरवादी विचारधारा को मानने वालों ने उग्र हिंदुत्व के ख़तरे और चुनौतियों को भलीभाँति समझा। उन्होंने अपनी सामाजिक कार्यों को जारी रखा, दलित बहुजन समाज को बीजेपी सरकार द्वारा लाई जाने वाली दलित-आदिवासी विरोधी नीतियों को लेकर आगाह किया। हक़ीक़त में संघ के अंदर जो भी दलित कार्यकर्ता हैं वो इस जाति के दंश को महसूस करते हैं। भँवर मेघवंशी ने अपनी पुस्तक ‘I could not be Hindu: The Story of a Dalit in RSS’ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस जातिवादी आचरण को दुनिया के सामने रखा। ऐसे में दलित-बहुजन-पसमांदा हितों की रक्षा के लिए हमें ऐसे नेताओं की जरुरत थी जो बीजेपी की प्रचंड शक्तिप्रदर्शन का सामना भी कर सके और जनता के मुद्दों से भी न भटके। आज़ाद ऐसी ही परिस्थितियों में लोगों की आवाज़ बन कर सामने आए।
2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान कुछ चुनावी विश्लेषणों में प्रशांत किशोर द्वारा दलित राजनीति को इस तरह देखा गया कि यह आज की राजनीति में मायने नहीं रखता, उनके शब्दों में “जाति जनगणना होने से दिक़्क़त नहीं है लेकिन क्या ये राष्ट्रीय मुद्दा होना चाहिए? राष्ट्रीय पार्टियों का मुद्दा होना चाहिए? इस पर चुनाव होना चाहिए? तो मैं इसके विरोध में हूँ।” हालाँकि चुनावी नतीज़ों ने ऐसे दावों की को झूठा क़रार दिया। सवर्ण जातियों द्वारा जाति के मुद्दों को राष्ट्रीय मुद्दे की तरह नहीं देखा जाता है। बीजेपी के फासीवादी शासन को समाप्त करने के लिये जब कोई रणनीति बनाई जाती है तो या तो वो सॉफ्ट हिंदुत्व को सामने रखती है या लिबरल विचारधारा को जिसमें मुस्लिम तुष्टिकरण की बात आती है। ये दोनों तरीक़े ही आज की राजनीतिक हालात में विफल होते नज़र आते हैं। असल में हिंदुत्व राजनीति के सामने अगर कोई विचारधारा खड़ी हो सकती है तो अंबेडकरवादी विचारधारा ही है। दलित राजनीति का महत्त्व तब तक ख़त्म नहीं हो सकता जब तक कि ब्राह्मणवाद का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है, जो कि संघ और बीजेपी के जड़ में है। इस बात को विपक्ष ने भी समझा और राहुल गांधी ने ख़ुद को इन्हीं विचारों के साथ रख कर यह चुनाव लड़ा। राहुल गांधी ने कास्ट सेन्सस की माँग रखी और इस तरह वो भी हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज़ बन कर विपक्ष के नेता बनें।

राहुल और आज़ाद

नरेंद्र मोदी ने एक राजतंत्र की राजनीति का युग शुरू किया था, जिसमें वो किसी तरह की जवाबदेही को अपनी ज़िम्मेदारी नहीं मानते थे। दिखावे और ढोंग का एक सिलसिला कैमरे पर देखने को लोग विवश थे। लोकतांत्रिक ढाँचे को धीरे धीरे नफ़रत से भरे राजतंत्र में बदला जा रहा था। ऐसी राजनीति के विरोध में राहुल गांधी ने पूरे भारत की यात्रा की, लोगों से गले मिलते नज़र आये और नफ़रत की जगह मुहब्बत का पैग़ाम देने की नई भारतीय राजनीति की शुरुआत की जो वाक़ई सराहनीय है। लेकिन राहुल को पप्पू व शहज़ादे से जन-नायक बनने के सफ़र में उतना संघर्ष नहीं करना पड़ा होगा जितना एक दलित नेता को ख़ुद की राजनीतिक क़ाबिलियत साबित करने में करना पड़ता है। राहुल में अपना प्रतिनिधि देखने में लोगों को मुश्किल नहीं होती है क्योंकि सवर्ण जाति से घिरी मीडिया, राजनीतिक पार्टियाँ व आम सवर्ण जनता राहुल गांधी को पहले वरीयता देगी। इसमें राहुल गांधी की आलोचना नहीं है बल्कि यही भारतीय समाज के ब्राह्मणवादी सर्वोच्चता के विचार से ग्रसित संस्थानों की असलियत है। इसलिए जितनी तवज्जो राहुल गांधी को मिलती है उतनी चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नेता को नहीं मिलती है। राहुल गांधी में लोगों को भारत का भविष्य सुनिश्चित दिखता है लेकिन उन्हीं विचारधारा के साथ किसी अंबेडकरवादी नेता में वो भविष्य को लेकर अनिश्चित ही नहीं रहते बल्कि जाति की राजनीति को एक क्षेत्रीय राजनीति की तरह देखते हैं। (Chandrashekhar Azad Ravan)
क्या यह उचित नहीं होगा कि हम राहुल गांधी की मुहब्बत और न्याय की राजनीति की भी सराहना करें और चंद्रशेखर आज़ाद की अन्याय के प्रति दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ लड़ने और दलित-बहुजन जनता के मुद्दों की जटिलता को लेकर उनके दृष्टिकोण को भी मान्यता दें। निराशाजनक बात ये है कि राहुल जिस तरह की राजनीति आज कर रहें हैं और शोषण के ख़िलाफ़ जिन माँगों को उठा रहे वो बहुत पहले से दलित विमर्श का हिस्सा रही है लेकिन कभी भी दलित नायकों की उन आवाज़ों को महत्व नहीं दिया गया।

दलित राजनीति से उम्मीदें और चंद्रशेखर आज़ाद

जाति का विनाश

बाबा साहेब ने जब ‘जाति का विनाश’ का संदेश हमें दिया था तब उसमें संपूर्ण जाति व्यवस्था को शामिल किया था, फिर चाहे वो क्रम में किसी भी नंबर पर हो। लेकिन इसके विपरीत विभिन्न दलित जातियों में उच्च जातियों की भाँति एक तरह के गर्व को आत्मसात् करने का चलन देखने में आता है। चंद्रशेखर आज़ाद ने ऐसे ही ‘The Great Chamar’ स्लोगन के साथ जाति के प्रति एक गौरव या घमंड के अनुभव को जोड़ने की कोशिश की। इस विचार को ऐसे दलित हाथों हाथ लेते हैं जो अपनी पहचान अपनी जाति की सामुदायिक शक्ति में देखते हैं और आर्थिक तौर पर आगे हैं। दलित जातियों में जाति के प्रति गौरव के अनुभव को ब्राह्मणवादी घमंड से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि सदियों से जो भेदभाव होता आया है उसके विरोध में यह गौरव/घमंड एक प्रकार का प्रतिकार है। इसके बावजूद बुद्धिजीवियों द्वारा इस गौरव को कहीं न कहीं राजपूत अहंकार या ब्राह्मणवादी सत्ता के घमंड से ही जोड़ कर देखा जाता है जो जाति पर आधारित है और जाति व्यवस्था को मज़बूत करता है। जबकि जाति का विनाश का विचार समानता पर आधारित है जिसमें कोई भी जाति ना किसी से श्रेष्ठ है ना कमतर। चंद्रशेखर आज़ाद को अगर राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना है तो उन्हें किसी एक जाति की महानता को छोड़कर जाति के विनाश पर काम करना होगा। (Chandrashekhar Azad Ravan)

पसमांदा विमर्श

बीजेपी की राजनीति की एक विशिष्टता यह है कि यह अवसर के मुताबिक़ ख़ुद को ढाल लेती है। जैसे मुस्लिम महिलाओं का समर्थन पाने के लिए तीन तलाक़ पर क़ानून लाना, दलित मुस्लिमों का वोट पाने के लिए ‘पसमांदा’ के हालात पर बात करना इत्यादि। हालाँकि आमतौर पर ऐसा जाना जाता है कि बीजेपी मुस्लिम विरोधी पार्टी है लेकिन ऐसे मुद्दे उठाकर वो शोषित वर्ग की नुमाईंदगी करने का दिखावा भी करती है। यद्यपि मुस्लिम समाज में सुधारों की ज़रूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। आज तक की दलित राजनीति में दलित मुस्लिम को साथ में रखकर देखा जाता रहा है लेकिन सच ये है कि ऊँची जाति के लोग हर धर्म में आपस में मिले होते हैं और निचले तबके का सुनियोजित तरीक़े से शोषण करते आ रहे हैं। इस तरह हिंदू दलित और अशराफ़ो का कोई मेल नहीं है बल्कि दलित पसमांदा का जोड़ मौलिक है।
पसमांदा हिंदू दलित नेताओं में भी अपना प्रतिनिधि खोजता है लेकिन निराश होता है। यही निराशा उसे चंद्रशेखर आज़ाद के प्रति भी है जो पसमांदा शब्द तक का प्रयोग नहीं करते हैं और अशराफ मौलवी से मिलकर ख़ुद की जीत के लिए उन्हें शुक्रिया बोलने जाते हैं। भले ही उन्हें मुस्लिम वोट बहुलता में मिले हैं लेकिन उन्हें दलित मुस्लिमों के लिए भी आगे आना चाहिए क्योंकि 85% मुस्लिम आबादी पसमांदा आज भी नरक की ज़िंदगी जीने को मजबूर है। इन लोगों का वोट मुस्लिम वोटर के नाम पर इस्तेमाल तो होता है लेकिन इन्हें सुविधाओं में कोई हिस्सा नहीं मिलता। न्याय की ये कैसी लड़ाई है जिसमें एक पूरे तबके को बाहर रखा गया है?
हो सकता है चंद्रशेखर आज़ाद को पसमांदा के बारे में जानकारी न हो कि कैसे इस्लाम की मसावत के पीछे जाति-व्यवस्था मुस्लिम समाज का कड़वा सच है। ऐसे में पसमांदा कार्यकर्ताओं को चंद्रशेखर तक अपनी बात पहुँचानी चाहिए और चंद्रशेखर को भी दलित मुस्लिमों की लड़ाई आगे ले जाने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। अभी आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) एक नई पार्टी है जिसमें पसमांदा आवाज़ को शामिल करने की नीति न्याय की राजनीति में उसे ठोस रूप से स्थापित करने में मददगार साबित होगा।

अवसरवाद की राजनीति

दलित राजनीति अपने आप में एक विचारधारा है और राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखता है। अंबेडकरवादी एक लंबी और कठोर लड़ाई लड़ते आ रहे हैं जिसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्तर हर प्रदेश में विभिन्न तरीक़ों से लड़ा जा रहा है। महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों जैसे तमिलनाडु में ये विचारधारा हर स्तर पर सशक्त है लेकिन उत्तर प्रदेश में यह जाति की राजनीति तक सिमट कर रह गया है। इसलिए जाति आधारित राजनीति को विश्वसनीय दृष्टि से नहीं देखा जाता है। कांशीराम जी ने जिस तरह बीजेपी के साथ हाथ मिलाया उसकी भी आलोचना होती है, हालाँकि वो वक़्त काफ़ी अलग था, दलित राजनीति ने आकार लेना शुरू ही किया था, सत्ता में आकर सत्ता हासिल करने की नीति उनकी दूरदृष्टि का हिस्सा थी। लेकिन आज हिंदुत्व विचारधारा के इस दौर में किसी भी दलित बहुजन पार्टी का बीजेपी से हाथ मिलाना दलित राजनीति को नुक़सान पहुँचाने जैसा होगा। ऐसी स्थिति में चंद्रशेखर आज़ाद को अकेले की राजनीति में भी कमजोर ना पड़ने वाली रणनीति का ध्यान रखना होगा क्योंकि अवसरवाद की राजनीति लंबे वक़्त में अपना असर ज़रूर रखती है।

नई दिशा

दलित नेता की दलित पहचान प्राथमिक नहीं है, क्योंकि जाति के विनाश के बाद दलित पहचान भी अपना अस्तित्व खो देगी। लेकिन शोषित-वंचित समाज की आकांक्षाओं को वही बेहतर समझ सकता है जो ख़ुद उस समाज से आता है। हम किसी ब्राह्मण से ब्राह्मणवाद के विनाश की उम्मीद नहीं रख सकते, इसलिए चंद्रशेखर आज़ाद की आवाज़ दलित राजनीति को वो दिशा देती है जिसमें दलित चेतना है। जय संविधान की इस नई लहर में हमें याद रखना चाहिए कि संविधान को बचाने की लड़ाई किन लोगों ने लड़ी है, ये समाज के सबसे निचले तबके ने लड़ी है जिनके लिए बाबा साहेब ने संदेश दिया था: Educate, Agitate, Organize! चंद्रशेखर आज़ाद इसी संदेश की दिशा में एक सार्थक कदम हैं।

(लेखिका पायल श्रीवास्तव एक स्वतंत्र लेखिका हैं, इंस्टाग्राम चैनल Graphite_Voice के माध्यम से सामाजिक पृष्ठभूमि के कार्टून बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं। लेख में लिखे यह विचार उनके निजी है।)


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