व्यंग्य मत बोलो, (Sarveshwar Dayal Saxena)
व्यंग्य मत बोलो।
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
अंधों का साथ हो जाये तो
खुद भी आँखें बंद कर लो
जैसे सब टटोलते हैं
राह तुम भी टटोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
क्या रखा है कुरेदने में
हर एक का चक्रव्यूह कुरेदने में
सत्य के लिए
निरस्त्र टूटा पहिया ले
लड़ने से बेहतर है
जैसी है दुनिया
उसके साथ होलो
व्यंग्य मत बोलो।
भीतर कौन देखता है
बाहर रहो चिकने
यह मत भूलो
यह बाज़ार है
सभी आए हैं बिकने
राम राम कहो
और माखन मिश्री घोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
शाम-एक किसान, (Sarveshwar Dayal Saxena)
आकाश का साफ़ा बाँधकर
सूरज की चिलम खींचता
बैठा है पहाड़,
घुटनों पर पड़ी है नही चादर-सी,
पास ही दहक रही है
पलाश के जंगल की अँगीठी
अंधकार दूर पूर्व में
सिमटा बैठा है भेड़ों के गल्ले-सा।
अचानक- बोला मोर।
जैसे किसी ने आवाज़ दी-
‘सुनते हो’।
चिलम औंधी
धुआँ उठा-
सूरज डूबा
अंधेरा छा गया।
विवशता, (Sarveshwar Dayal Saxena)
कितना चौड़ा पाट नदी का
कितनी भारी शाम
कितने खोये खोये से हम
कितना तट निष्काम
कितनी बहकी बहकी-सी
दूरागत वंशी टेर
कितनी टूटी-टूटी-सी
नभ पर विहंगो की फेर
कितनी सहमी सहमी-सी
क्षिति की सुरमई पिपासा
कितनी सिमटी सिमटी-सी
जल पर तट तरु अभिलाषा
कितनी चुप-चुप गई रोशनी
छिप-छिप आई रात
कितनी सिहर सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात
चार नयन मुस्काये
खोये भीगे फिर पथराये
कितनी बड़ी विवशता
जीवन की कितनी कह पाए। (Sarveshwar Dayal Saxena)