इंडस न्यूज़ को झारखंड के खूूंटी जिले में तोरपा में बौद्ध धम्म के अवशेष मिले हैं। प्रखंड क्षेत्र के फटका पंचायत के सिरही तोला में नदियों के किनारे ये अवशेष मौजूद हैं। इस जगह पर काले ग्रेनाइट के पत्थर की नक्काशी की हुई मूर्तियां एवं ग्रेनाइट के स्तंभ मौजूद हैं। तीन फुट लंबे स्तंभ पर बौद्ध देवता की खूबसूरत आकृति है। इसी तरह की दूसरी आकृति दुसरे स्तंभ पर बनी हुई है। इन स्तंभों पर बौद्ध शिल्प को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। इस खोज और पड़ताल को पुरातात्विक अन्वेषण की जरूरत है। इंडस न्यूज की टीम में जो पाया, वह आप तक हम पहुंचा रहे हैं। (Discovery of ancient Dhamma)
यहां तक पहुंचने के लिए इंडस न्यूज की टीम को काफी मशक्कत करना पड़ी, क्योंकि रास्ते की दुश्वारियां काफी रहीं और कई जगह तो रास्ता था ही नहीं। यहां की मंत्रमुग्ध कर देने वाली ख़ूबसूरती ने दुश्वारियों से भरे इस सफर को आसान बनाया।

हाईलाइट
इंडस न्यूज में झारखंड में ढूंढ निकाला प्राचीन धम्म क्षेत्र
कारो एवं बनई नदी के संगम पर मौजूद गुमनाम बौद्ध स्थल
तोरपा की पहाड़ियों-जंगलों में कभी था नक्सलियों का राज
200 वर्ग फुट के क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं पुरातात्विक अवशेष
पत्थर की नक्काशी की हुई बौद्ध मूर्तियां और ग्रेनाइट के स्तंभ

झारखंड का खूंटी जिला नक्सलियों का गढ़ कहा जाता है। यहां पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया (PLFI), जिसकी स्थापना दो दशक पहले हुई, तब इसे झारखंड लिबरेशन टाइगर्स (JLT) नाम से जाना जाता था। पीएलएफआई की सीपीआई (माओवादी) से भी झड़पें होती रही हैं और न गुटों के खिलाफ सशस्त्र बलों ने भी इस इलाके में कई ऑपरेशन किए हैं। लेकिन, अब यहां शांति है और नक्सली गतिविधियां लगभग थम चुकी हैं। मीडिया और पुलिस की नजर में खूंटी की पहचान नक्सलियों के रेड कॉरिडोर का रहा है।
आदिवासी बाहुल्य झारखंड का यह इलाका न केवल प्राकृतिक सुषमा और सौंदर्य से लबरेज एक शानदार जगह है, बेहद खूबसूरत झरने और पहाड़ियों और कल कल करती बहती नदियां हैं। इस सबके बीच इस इलाके की असली पहचान देश और दुनिया के सामने नहीं आ सकी। (Discovery of ancient Dhamma)
खूंटी से तथागत बुद्ध और उनके धम्म का संबंध ओझल ही रहा है, जबकि पुरातात्विक साक्ष्य आज भी तोरपा में मौजूद हैं। बुद्ध झारखंड की धरती से भी गुजरे और यहां विहार किया। इसका सबसे प्रामाणिक दस्तावेज संयुक्त निकाय में मिलता है। इसी कड़ी में इंडस न्यूज़ ने तोरपा के बीहड़ जंगल में जाकर बौद्ध धम्म जुड़े प्राचीन अवशेष को ढूंढ निकाला है।

200 वर्ग फुट के क्षेत्र में फैला हुआ है यह बौद्ध स्थल
खूंटी के तोरपा प्रखंड के फटका गांव स्थित सिरही टोला में कारो एवं बनई नदी के संगम पर स्थित यह ऐतिहासिक और पुरातन स्थल के रूप में जाना जाता है। यह स्थल लगभग 200 वर्ग फुट के क्षेत्र में फैला हुआ है। अगर इस जगह की खुदाई हो तो जमींदोज बौद्धिस्ट परंपरा से इस इलाके के जुड़ाव की कई कड़ी देश और दुनिया के सामने आ सकती हैं।
ग्रामीणों के अनुसार इस स्थल की खुदाई करने पर पत्थर पर उकेरी गईं कलाकृतियां एवं पत्थर के अन्य संरचनाएं प्राप्त होने की संभावना है। इस स्थल पर कई पत्थर की नक्काशी की हुई मूर्तियां एवं ग्रेनाइट के स्तंभ जमीन में बिखरे पड़े हैं। इस जगह पर जो स्तंभ नजर आते हैं वह किसी प्राचीन बौद्ध मठ का प्रवेश द्वार का हिस्सा नजर आता है।

सिद्धार्थ गौतम के पहले ध्यान प्रतीक बैल की मौजूदगी
यह तस्वीर जो आप देख रहे हैं! यह शंकर का नंदी नहीं, बल्कि सिद्धार्थ गौतम के पहले ध्यान जिसको पाली भाषा में झान बोलते हैं, वह है। इस स्थल पर दो बैल की काले ग्रेनाइट की मूर्ति हैं, जिसे स्थानीय लोग अब जानकारी के अभाव में भगवान शंकर का नंदी मानकर पूजा करने लगे हैं।
इस स्थल की छिटपुट जानकारी मिलने के बाद भाजपा और आरएसएस से जुड़े लोग यहां महादेव का मंदिर बनाने को लेकर सक्रिय होने लगे हैं, लेकिन स्थानीय आदिवासियों ने इसे असुर संस्कृति का प्रतीक चिह्न बताकर उनकी मंशा पर पानी फेर दिया है। (Discovery of ancient Dhamma)
बौद्ध विद्वान कहते हैं कि बुद्ध काल में बैल का बहुत ज्यादा महत्व था। सम्राट असोक ने अनेक शिल्पों में बैल को बतौर प्रतीक चिह्न के तौर पर इस्तेमाल किया। सम्राट अशोक ने स्तंभों पर बैल की प्रतिमा बनवाई है। बुद्धिस्ट इकोनोग्राफी एंड सिंबल्स शास्त्र के अनुसार बुद्ध के इस प्रथम ध्यान को शिल्पों और चित्रों में अंकित करने के लिए बैल का प्रयोग किया गया, इसलिए यह शिव का नंदी नहीं बल्कि बुद्ध के पहले ध्यान का प्रतीक है।

तोरपा के उत्सव और संस्कृति में बौद्धिस्ट संस्कृति की झलक
शाक्य जनपदों की तरह तोरपा और आसपास के इलाके में कृषि कार्यों में बौद्ध धम्म से जुडी संस्कृति की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। शाक्य जनपद में उस समय एक उत्सव मनाया जाता था,
जिसका नाम बहुत स्पष्ट नहीं है। यह उत्सव कुछ इस तरह का ही था, जैसे झारखंड में आज भी ‘रोहणी’ और ‘सोहराई’ उत्सव मनाए जाते हैं। इसी तरह का उत्सव महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में भी ‘पोला’ उत्सव मनाया जाता है।। यह उत्सव खेतों में बीज बोने का उत्सव हुआ करता था। (Discovery of ancient Dhamma)
इस उत्सव की मान्यता के अनुसार उस जनपद के मुखिया यानी गण के मुखिया को खेतों में बीज बोने का सम्मान दिया जाता था। बीज बोने के लिए बैल का उपयोग किया जाता था। आसपास के इलाके में भी इसी तरह का उत्सव मनाया जाता है। उक्त स्थल पर स्थानीय ग्रामीणों द्वारा अच्छी बारिश के लिए हर वर्ष जून माह में पूजा एवं अनुष्ठान भी किया जाता है। स्थानीय लोगों का मानना है कि यदि वे बरसात के मौसम से पहले पूजा नहीं करते हैं तो खेती के लिए अच्छी बारिश नहीं होती।
बौद्ध विद्वानों के अनुसार, एक समय सिद्धार्थ के पिता शुद्धोधन शाक्य राजा थे, इसलिए उत्सव के दौरान यह सम्मान उन्हें मिला था। मान्यता है की जब राजा शुद्धोधन खेतो में बीज बो रहे थे, तब छोटे बालक सिद्धार्थ ध्यान कर रहे थे। सिद्धार्थ का यह प्रथम ध्यान था, जिसे पाली भाषा में झान बोलते हैं।