Indus News TV Live

Thursday, May 1, 2025
spot_img

क्या पूंजीवादी बाजार दलितों को असली आजादी देता है?

‘अंबेडकर गांव में एडम स्मिथ’: (भाग 1)


श्री चंद्रभान प्रसाद सुविज्ञात बुद्धिजीवी हैं। फिलहाल वे अमरीकी जॉर्ज मेजन विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं। उन्होंने दलितों की जाति-उत्पीड़न से मुक्ति के सवाल पर विस्तृत लेखन किया है। 12 अगस्त को टाइम्स ऑफ इंडिया की ‘इंडिया@75’ शृंखला में उनका ‘जब एडम स्मिथ अंबेडकर गांव में पहुंचे’ लेख प्रकाशित हुआ है। इसका उपशीर्षक है, ‘अपने ग्रामीण घर पर लौटे दलित ने पाया, बाजार शक्तियां दलितों को असली आजादी देती हैं।’ (Give Real Freedom Dalits)

श्री प्रसाद ने 2008 में अर्थशास्त्री देवेश कपूर के साथ एक प्रोजेक्ट पर, और फिर हाल में कुछ दिन पहले, उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल (जिला आजमगढ़) में अपने ननिहाल तोफापुर की यात्राओं में 1965 के अपने बचपन के गांव में पूंजीवादी आर्थिक सुधारों के जरिए हुए कायापलट का वर्णन करते हुए इससे दलितों को मिली आजादी का वर्णन किया है।

पूंजीवादी बाजार का दलितों के जीवन पर प्रभाव

चंद्रभान जी के बचपन के वक्त इस गांव में मुश्किल से आधा दर्जन स्वनिर्भर दलित परिवारों के अतिरिक्त सभी लगभग भूदास जैसा जीवन बिताते थे। अक्टूबर-नवंबर व मार्च-अप्रैल के बुआई-कटाई के मौसम में उन्हें सुबह साढ़े तीन बजे उठकर काम पर लग जाना पड़ता था। इस संक्षिप्त अखबारी लेख में वे इतना ही लिख पाए। पर जिन्हें भी कुछ दशक पहले के देहाती जीवन का थोड़ा भी पता है वे अधिक लिखे बगैर भी जानते ही हैं कि उस दौर के गांवों में दलितों का जीवन कितना कष्टसाध्य था।

तीन दशक से भी अधिक अंतराल पर 2008 में गांव लौटने पर वे इसका पूरी तरह कायापलट हुआ पाते हैं। बाग कम हो गए, बच्चों ने चूहे मारना छोड़ दिया और दलितों के कच्चे घर ईंटों के हो गए। कुछ दलित पहले ‘उच्च जातियों’ का विशेषाधिकार रही मूंछें भी उगाने लगे थे। प्रवास जोरों पर था – 3 दर्जन दलित फरीदाबाद, सूरत, मुंबई, कुछ नागपूर भी, जैसे शहरों में जा चुके थे। (Give Real Freedom Dalits)

जाति निरपेक्ष व्यवसाय फल-फूल रहे थे और भूस्वामियों पर दलितों की निर्भरता समाप्ति की ओर थी। दलितों की आर्थिक स्थिति में आए परिवर्तन से कुछ द्वारा आरामदायक पेशे अपना लेने के सबूत के तौर पर उन्हें कुछ दलितों की तोंदें भी बढ़ी मिलीं।

तोफापुर की पिछले दिनों की एक और यात्रा को तो वे अत्यंत शिक्षाप्रद मानते हैं। तिपहरी में वहां पहुंचने पर उन्हें कुछ बुजुर्ग दलित स्त्री-पुरुष चाय-पकौड़ों के लिए पास के बाजार जाते मिले। सबके पैरों में चप्पल थीं और किसी की ऐडियों में बिवाइयां नहीं फटीं थीं। किशोर जींस पहने थे और दो बार के ग्राम प्रधान मनिका सरोज मुताबिक 70% दलित बच्चे पास के निजी पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं। (Give Real Freedom Dalits)

अपने बचपन के तजुर्बे के साथ तुलना करते हुए श्री प्रसाद लिखते हैं कि तब शादियां तय होते वक्त होने वाले दूल्हे के परिवार की तारीफ में बताया जाता था कि “इस परिवार की औरतें जमींदारों के खेत और घर काम करने नहीं जातीं हैं।” किंतु अब कोई दलित स्त्रियां पूर्व-जमींदारों के घर काम के लिए नहीं जातीं। कुछ बूढ़ी दलित स्त्रियां हीं धान रोपाई का काम करती हैं। वे भी नकद मजदूरी लेकर घर लौटती हैं। 175 दलित मजदूरों में से 4 ही बटाई पर खेती करते हैं और श्री प्रसाद की टिप्पणी है, ‘कुछ दलितों को डायबिटीज भी होने लगा है।’

चंद्रभान जी बताते हैं कि कुछ तब्दीलियां शब्दों में बयान करनी मुश्किल हैं। उन्हें वे ही समझ सकते हैं जिन्होंने पहले और अब दोनों को देखा है। गांव की तीन बस्तियों में दलितों की तीन रोजमर्रा की जरूरी चीजों की दुकानों में फेयर एंड लवली, टूथ ब्रश व पेस्ट, शैम्पू व हेयर ऑइल पाउच, अंडे, नहाने के साबुन, यहां तक कि जन्मदिन पार्टियों के लिए टोपियां व गुब्बारे भी बिकते हैं। सदियों-हजारों साल से वंचित-उत्पीड़ित जीवन बिताने को विवश दलितों के जीवन में इस बड़ी तबदीली पर वे कहते हैं, ‘तोफापुर के दलित एक सदी और एक महाद्वीप का फासला तय कर आए हैं।’

चंद्रभान जी ने इस बदलाव पर गांव के ‘उच्च’ जाति वालों से भी बात की। वे अब भी पुरानी बातों को याद करते हैं कि कैसे बारात आने पर दूल्हे के परिवार द्वारा फेंके सिक्कों को उठाने दलित इकट्ठा होते थे – “अब जमाना बदल चुका है।” “अब प्रजा आजाद हो गई है। दलितों को अब हमारे सिक्के नहीं चाहियें।” “दलित दूल्हे अब नोटों की माला पहनते हैं।” (Give Real Freedom Dalits)

चंद्रभान जी इसे रक्तहीन क्रांति करार देते हैं। इस रक्तहीन क्रांति की वजह क्या है? प्रवास तथा जाति-निरपेक्ष पेशे। इस गांव के 16 दलित खाड़ी देशों में काम करते हैं, 125 औद्योगिक केंद्रों पर प्रवास कर गए हैं, 44 हर रोज आजमगढ़ जिला केंद्र पर काम करने जाते हैं, अन्य 44 छोटे निर्माण स्थलों पर कार्यरत हैं तो 7 छोटे व्यवसाय चलाते हैं।

भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने पर अध्ययनकर्ताओं द्वारा तोफापुर तथा ऐसे अन्य गांवों में दलितों के जीवन में आए इस रूपांतर को नजरअंदाज करने के बजाय इन्हें देखने, स्वीकारने व स्वागत करने पर चंद्रभान जी जोर देते हैं। उनके अनुसार तोफापुर मात्र ‘अंबेडकर निवास’ ही नहीं (पूंजीवादी नवउदारवादी) ‘आर्थिक सुधारों द्वारा जन्मा उछल-कूद करता शिशु’ भी है।

उनकी नजर में जहां अंबेडकर स्वतंत्रता के दार्शनिक हैं वहीं एडम स्मिथ पूंजीवाद के दार्शनिक हैं, और इन दोनों, अंबेड़करवाद व पूंजीवाद का मिलन ही दलितों को जाति की जकड़न से असली आजादी प्रदान करेगा। अतः वे खास तौर पर 1990 के दशक में आरंभ हुए नवउदारवादी पूंजीवादी आर्थिक सुधारों का खुला स्वागत करते हैं।

‘ब्लैक’, व ‘दलित’, कैपिटलिज्म

जाति अत्याचार की जकड़न से दलितों की मुक्ति का अत्यंत गंभीर सवाल एक सदी से अधिक बहस का विषय है। इसलिए हमने इस लेख का इतने विस्तार से उल्लेख किया। चंद्रभान जी के इस संबंधी विचार पहले से सुविज्ञात हैं कि पूंजीवादी मुक्त बाजार की शक्तियों का अधिकाधिक विकास ही भारत की जाति व्यवस्था की जकड़न को तोड़ कर दलितों को मुक्त कर सकता है। (Give Real Freedom Dalits)

 

इसके लिए वे अमरीकी ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ की तर्ज पर ‘दलित कैपिटलिज्म’ का विचार भी प्रस्तुत करते रहे हैं अर्थात दलितों में से बड़ी संख्या में पूंजीपतियों का उभार होने से दलित सिर्फ कामगार न रहकर काम देने वाले मालिक बन जाएंगे। अतः वे एक दलित चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ (डिक्की) की स्थापना में भी प्रमुख भूमिका निभा चुके हैं। वे एक दलित स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना का प्रयास भी करते रहे हैं।

उनके विचारों की समीक्षा पूर्व ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ से ‘ब्लैक लाईव्ज मैटर’ की विडंबना पर कुछ बातें जरूरी हैं। 1950-60 के दशक में अमरीका में नस्लवाद विरोधी सिविल राइट्स आंदोलन जोर पकड़ा। इसमें ब्लैक व अन्य गैर-श्वेत नस्लीय पहचान वालों के आर्थिक-सामाजिक शोषण और दूसरे दर्जे का जबर्दस्त विरोध करते हुए उन्हें ऐतिहासिक वंचना से मुक्त करने हेतु समान नागरिक अधिकारों के साथ ही सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रमों – आवास, रोजगार, शिक्षा, आदि की बात मजबूती से उठाई जाने लगी। (Give Real Freedom Dalits)

इससे श्वेत नस्लवादी बहुत नाराज थे, तब 1968 में रिचर्ड निक्सन के चुनाव अभियान के आर्थिक सलाहकार एलन ग्रीनस्पैन ने ब्लैक आंदोलन को “मुक्त व्यवसाय व व्यक्ति अधिकारों की अमरीकी व्यवस्था पर हमला” करार देते हुए ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ का नारा उछाला। उनके अनुसार ब्लैक लोगों के पिछड़ेपन और उनकी अलग बस्तियों (घेट्टो) का “कुदरती” हल पूंजीवाद ही है। इसके लिए सार्वजनिक कार्यक्रमों के बजाय कर्जों और टैक्स प्रोत्साहनों के जरिए ब्लैक व्यवसायों को प्रोत्साहन देकर उन्हें भी पूंजीवादी होड में अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाना चाहिए।

‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ की नीति ने ब्लैक व अन्य वंचित नस्ली पहचान वालों के कल्याण कार्यक्रमों की जिम्मेदारी से अमरीकी सत्ता को मुक्त कर उन्हें खुद अपने ‘उत्थान’ का जिम्मेदार बना दिया। इसने ब्लैक समुदायों में कुछ को अमीर बनने की लालसा में फंसा विरोध आंदोलन की एकता को तोड़ दिया। उधर श्वेत नस्लवादी भी निक्सन के समर्थन में आ गए। वे ब्लैक जनता की ऐतिहासिक वंचना से मुक्ति हेतु सार्वजनिक कार्यक्रमों के सख्त खिलाफ थे, क्योंकि श्वेत पूंजीपतियों को गरीब-वंचित ब्लैक अत्यंत सस्ते मजदूर के तौर पर उपलब्ध थे।

निक्सन ने राष्ट्रपति बनने पर ऑफिस ऑफ माइनोरिटी बिजनेस इंटरप्राइज बनाया। 1979 में कार्टर प्रशासन ने उसका नाम माइनोरिटी बिजनेस डेवलपमेंट एजेंसी कर दिया। रीगन, क्लिंटन, ओबामा से डोनाल्ड ट्रंप तक सब राष्ट्रपति व्यवसाय व टैक्स प्रोत्साहन के जरिए ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ की इस नीति को विभिन्न तरह से आगे बढ़ाते रहे हैं। (Give Real Freedom Dalits)

निश्चय ही कुछ ब्लैक छोटे-बड़े व्यवसायों के द्वारा पूंजीपति वर्ग की कतारों में शामिल भी हुए। कई ब्लैक बड़े कॉर्पोरेट व अमरीकी सत्ता संस्थानों के शीर्ष पर पहुंचे। मनोरंजन व खेलों के जरिए भी कुछ ब्लैक प्रसिद्ध व अमीर बने। और, बराक ओबामा प्रथम ब्लैक राष्ट्रपति भी बने। वित्तीय पूंजीवाद की अपनी प्रक्रिया से बैंक ऋणों में हुए जबर्दस्त विस्तार के जरिए भी ब्लैक समुदाय में काफी लोगों का जीवन स्तर सुधरा। वे मकान-कार एवं अन्य उपभोक्ता वस्तुएं खरीद सके। किंतु अमरीकी पूंजीवाद का आर्थिक संकट जैसे ही चरम पर पहुंचने लगा, उसका सर्वाधिक शिकार भी ब्लैक समुदाय ही हुआ – मजदूर, मध्यम वर्ग, छोटे कारोबारी, आदि सभी।

ब्लैक समुदाय को सबप्राइम कर्ज देकर पूंजीपतियों ने खूब मुनाफा कमाया। किंतु 2007-08 के वित्तीय संकट में ब्लैक परिवारों की 53% संपदा नष्ट हो गई। बड़े पैमाने पर ब्लैक बेरोजगारी व गरीबी में धकेले गए। इसके बाद जिस वक्त ओबामा राष्ट्रपति थे, पुलिस द्वारा बढ़ती ब्लैक हत्याओं की घटनाएं सामने आने लगी। डोनाल्ड ट्रम्प के काल में तो ‘ब्लैक लाईव्ज मैटर’ जैसा आंदोलन खड़ा हुआ।

उस दौरान ब्लैक ही नहीं अमरीकी मूल निवासियों, हिस्पानिक, एशियाई, आदि के साथ भेदभाव और उधर व्हाइट सुप्रिमेसिस्ट प्रतिक्रिया व नस्लवादी संगठनों के मजबूत होने की बातें बड़े पैमाने पर सामने आईं। अर्थात कुछ ब्लैक, हिस्पानिक, एशियाईयों के पूंजीपति बन जाने से नस्लवाद की परिघटना पर कोई खास आंच आती दिखाई नहीं दी। न सिर्फ मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक संकट का सर्वाधिक शिकार ब्लैक व अन्य अल्पसंख्यक समुदाय बने हैं, अमरीकी समाज में श्वेत प्रभुत्ववादी फासिस्ट रुझान के दोबारा उभार का निशाना भी वे ही बन रहे हैं।

चंद्रभान जी खुद अमरीकी यूनिवर्सिटी से शोधकर्ता के रूप में संबद्ध हैं। इस विडंबना पर संभवतः उनका ध्यान गया ही होगा। पर इस संबंध में उनके विचार हमें मालूम नहीं। (Give Real Freedom Dalits)

सामंतवाद से पूंजीवाद के रूपांतरण में दलितों को मिली आजादी

ऐतिहासिक रूप से भारत की खेती-दस्तकारी वाली सामंती अर्थव्यवस्था के श्रम विभाजन जाति व्यवस्था के रूप में, डॉ अंबेडकर के शब्दों में कहें तो ‘श्रमिकों का भी विभाजन’, रूढ़ हो गया था। हर व्यक्ति का उत्पादन, और वितरण, में स्थान जन्मजात तय था। ईस्ट इंडिया कंपनी के औपनिवेशिक शासन ने इस दीर्घकालिक जाति (वर्ग) आधारित उत्पादन व्यवस्था को तगड़ा झटका दिया। इसने न सिर्फ इसके शीर्ष पर सामंतों – शाहों-नवाबों-राजाओं – को अंग्रेज व्यापारियों-बैंकों द्वारा पदस्थापित कर दिया, बल्कि इसके नए भूमि बंदोबस्त ने हर स्थिति में अधिकाधिक मुमकिन लगान उगाहने वाली नई जमींदारी व्यवस्था स्थापित की। (Give Real Freedom Dalits)

इसने ग्रामीण किसान-दस्तकार-मेहनतकश जनता के उत्पीड़न को चरम पर पहुंचाया और उनकी कमर पूरी तरह तोड़ जमींदारों-सूदखोरों का गुलाम बना दिया। जोतिबा फुले जैसे विचारकों (किसान का कोड़ा) से प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों (गोदान) तक ग्रामीण जीवन पर टूटी इस विपत्ति का वर्णन हमें मिलता है। इसने एक और करोड़ों को शिकार बनाने वाले अकालों-महामारियों को जन्म दिया, तो वहीं हर ओर लाखों की तादाद में अपने देहाती घरों से उजड़कर कंगाल-बरबाद जनता के भारत में नए उभरते शहरी व्यापारिक-औद्योगिक केंद्रों के कारखानों-खानों-बंदरगाहों-बागानों से एशिया-अफ्रीका-कैरिबियाई देशों के चाय, रबर, गन्ना बागानों में गिरमिटिया व प्रवासी बनकर जाने को विवश किया।

एक तरफ जहां ये पुरातन जीवन का बरबादी व उजड़ना था, तो वहीं इसने परंपरागत जाति आधारित श्रम विभाजन वाले पेशों से नवीन पेशों में जाने की राह भी खोली और उत्पीड़ित जनता में से कुछ हेतु नूतन शिक्षा व ज्ञान-विज्ञान के रास्ते भी खोले।

औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद 1947 में सत्ता पाए पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि कांग्रेस ने पूंजीवादी विकास को आगे बढ़ाया। भूमि संबंधों में ‘सुधारों’ के जरिए सामंतवाद का स्थान पूंजीवादी उत्पादन संबंधों ने ले लिया अर्थात सामंती जमींदार ही पूंजीवादी जमींदारों में तब्दील हो गए। इससे खेतीबाड़ी में दिहाड़ी मजदूरों की भूमिका बढ़ने लगी। साथ ही औद्योगिक और सेवा क्षेत्र का विस्तार भी हुआ।

आज देश के कुल घरेलू उत्पादन का लगभग 60 प्रतिशत सेवा क्षेत्र से, 27 प्रतिशत उद्योग से और 13 प्रतिशत खेतीबाड़ी से आता है। निश्चय ही इस पूंजीवादी विकास के कारण अथाह भौतिक प्रगति हुई है। कभी अनाज की कमी से जूझ रहा भारत अब घरेलू जरूरत से ज्यादा अनाज पैदा कर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बेचता भी है। यह प्रगति तरह-तरह के उद्योगों, तेजी से शहरीकरण, बड़े अस्पतालों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, ऊंची इमारतों, चौड़ी सड़कों, परिवहन और बुनियादी ढांचे की भरमार के रूप में स्पष्ट दिखाई देती है। (Give Real Freedom Dalits)

इस पूंजीवादी विकास ने उत्पादक व्यवस्था में सामंतवाद को अतीत की चीज बना दिया और भारत की 60% आबादी पूर्ण या अर्धकालिक उजरती मजदूर बन चुकी है। इस प्रक्रिया में ग्रामीण मेहनतकशों का एक बड़ा भाग परंपरागत जाति आधारित खेती-दस्तकारी के पेशों से नए पेशों में जा पुराने सामंती-पितृसत्तात्मक आर्थिक संबंधों से मुक्त होकर नए पूंजीवादी बाजार का हिस्सा बन गया। आज दलित जातियों का सिर्फ सबसे गरीब लाचार हिस्सा ही पूंजीवादी आर्थिक संकट के गहराते जाने की वजह से नए रोजगार पाने में वंचित हो आर्थिक मजबूरी से परंपरागत पेशों में बचा रह गया है, इसलिए नहीं कि उस पेशे को छोड़ने से रोका जा रहा है।

उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में चंद्रभान जी के लेख में एक गांव के अनुभवों का जो वर्णन है वह कमोबेश अधिकांश भारत के लिए सच है। पूंजीवाद ने सामंती भूदासता व जातिगत पेशों के बंधन से मुक्त कर दलितों को पूंजीवादी बाजार के उजरती मजदूरी बनाकर उत्पीड़ित जातियों की जनता को खुली हवा में सांस लेने की आजादी दी है। यह सच में बहुत बड़ा परिवर्तन है। इस सच्चाई से इंकार करना नामुमकिन है।

यह भी सच है कि 1947 पश्चात पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार के दौर में दलितों सहित सभी मेहनतकशों के जीवन में बहुत सी भौतिक-सांस्कृतिक सुविधाएं व उपलब्धियां आईं हैं, जिनका वर्णन इस लेख में किया गया है। पर उनके लेख से एक और बात भी स्पष्ट है, जिसकी पुष्टि सभी सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण भी करते हैं – चंद अपवाद अमीर पूंजीपतियों व एक छोटे से मध्यम वर्ग को छोड़कर दलितों का अधिकांश हिस्सा आज भी संपत्तिहीन मेहनतकश ही है, वह मालिक वर्ग में शामिल नहीं हुआ। पूंजीवादी विकास ने दलितों को सामंती बंधनों से आजादी तो जरूर दी है पर वह आजादी सिर्फ इतनी है कि वे पूंजीवादी व्यवस्था में उजरती मजदूर बन सकें।

किंतु सच क्या इतना ही सुनहरा है?

चंद्रभान जी इस बात को नजरंदाज करते हैं कि मात्र उत्पीड़ित जनता की अपनी निरपेक्ष सामाजिक स्थिति के आधार पर ही यह तय नहीं किया जा सकता कि शोषण-उत्पीड़न कम या समाप्त हो गया है। उसके लिए शासक व शासित वर्गों की तुलनात्मक स्थिति जानना जरूरी है। चंद्रभान जी कहते हैं कि दलितों के कच्चे घर अब ईंटों के पक्के घर बन गए हैं। इस संबंध में हम मार्क्स की बात याद करते हैं, “घर चाहे छोटा हो या बड़ा, जब तक उसके आसपास के घर भी उतने ही छोटे होते हैं, तब तक घर के लिए समस्त सामाजिक मांग उससे पूरी हो जाती है। लेकिन इस छोटे-से घर की बगल में एक महल खड़ा हो जाने दीजिये, तब वह छोटा-सा घर घर न रहकर झोपड़ा बन जायेगा। (Give Real Freedom Dalits)

अब यह छोटा-सा घर यह जाहिर करेगा कि उसके मालिक की मांग बहुत कम है, या नहीं के बराबर है। और फिर, सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह छोटा-सा घर चाहे जितना ऊंचा उठ जाये, यदि वह पड़ोस का महल भी उतना ही या उससे भी अधिक ऊपर उठता जाता है, तो इस अपेक्षाकृत छोटे घर में रहनेवाला व्यक्ति उसकी चारदीवारी के भीतर अपने को अधिकाधिक बेचैन, असन्तुष्ट और जकड़ा हुआ महसूस करेगा।”

(उजरती श्रम और पूंजी) अतः देखना होगा कि पूंजीवादी आर्थिक विकास व सुधारों से दलितों के जीवन में आए परिवर्तन ने क्या उन्हें समाज के शासक वर्ग के समकक्ष ला खड़ा किया है या शासक वर्गों के समक्ष उनकी स्थिति आज भी वही है जो एक कच्ची मिट्टी के घर से तब्दील होकर ईंटों से बने पक्के घर की एक विशाल महल के समक्ष होती है।

भारत के पूंजीवादी विकास को देखें तो पूंजीवादी व्यवस्था की विशेषता अनुसार ही विकास का फल मुख्यतया मुट्ठी-भर पूंजीपति वर्ग को ही मिला है। यह शासक वर्ग अपनी सेवा के लिए केंद्र और राज्य में सरकार बनाने के लिए अपनी पार्टियों में से किसी एक को चुनता है। सरकार, नौकरशाही, न्यायपालिका और कानूनी व्यवस्था सहित पूरा राज्यतंत्र इस वर्ग की सेवा में लगा हुआ है। (Give Real Freedom Dalits)

देश की ज्यादातर कामकाजी आबादी आज भी दिन-रात मेहनत करने के बावजूद दो समय की रोटी के लिए मोहताज है। गरीबी, बदहाली, बेरोजगारी और महंगाई इनकी नियति बन गई है। दिन में 10-15 घंटे तक काम करने वाले देश के 55 करोड़ से अधिक की आबादी वाले मजदूर वर्ग द्वारा बनाई गई कुल संपत्ति में मजदूरी के रूप में उन्हें जो हिस्सा मिलता है, वह लगातार घट रहा है। इसी का नतीजा है कि आज देश में एक तरफ अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, तो दूसरी तरफ़ गरीब और ज्यादा गरीब होते जा रहे हैं।

देश की केवल ऊपर की 1% आबादी के पास ही देश की 58% संपत्ति इकट्ठा हो गई है और ऊपर की 10% आबादी के पास 80% से अधिक संपत्ति है। उधर तली की 60% आबादी लगभग संपत्तिहीन ही नहीं है, कर्ज में भी डूबी है। सभी सर्वेक्षण बताते हैं कि दलित जातियों का अधिकांश हिस्सा इस 60% संपत्तिहीन आबादी में ही आता है। इस मजदूर-मेहनतकश आबादी के बढ़ते आर्थिक शोषण के साथ ही साथ उनके पूर्व के संघर्षों से प्राप्त हुए संवैधानिक अधिकार भी आज लगातार छीने जा रहे हैं।

तब क्या हम वास्तव में कह सकते हैं कि पूंजीवादी सुधारों ने दलितों को असली आजादी दी है और इनकी बढ़ती गति ही उन्हें जाति उत्पीड़न से पूर्ण मुक्ति दे देगी? क्या तथ्य वास्तव में ऐसा बताते हैं? हाल के सालों में, खास तौर पर संघ के उभार के बाद, जाति उत्पीड़न की घटनाओं में हुई वृद्धि तो इसकी कतई पुष्टि नहीं करती। (Give Real Freedom Dalits)

(यथार्थ पत्रिका के ताज़ा अंक से साभार, यह पत्रिका का संपादकीय नज़रिया है)


यह भी पढ़ें: बम का दर्शन – क्रांतिकारियों का महात्मा गांधी को जवाब


(आप हमें फेसबुक पेजइंस्टाग्रामयूट्यूबट्विटर पर फॉलो कर सकते हैं)

Related Articles

Recent