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Wednesday, April 30, 2025
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शाहकुंड में मिला दुर्लभ मौर्यकालीन मृदभांड का टुकड़ा

सोमनाथ आर्य


शाहकुंड में रिपोर्टिंग और अपनी पुस्तक के लिए रिसर्च के दौरान एक दुर्लभ मृदभांड का हिस्सा मिला है। पुरातत्व के लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण वस्तु है। देश के कई हिस्से में उत्खनन के दौरान यह मृदभांड मिलता है। मुझे अब तिथिनिर्धारण की विधियों में एक विधि उस स्थल पर पाए गए मृद्भांडों का विश्लेषण करना है। मौर्य काल के निवासस्तरों का परिचय, उस युग से संबंधित मृद्भांडों जैसी साधारण वस्तुओं से मिलता है। (Rare piece of Mauryan)

तिथिनिर्धारण के लिए मृद्भांडों का अध्ययन प्रयुक्त सामग्री और भांड के आकार दोनों के आधार पर किया जाता है। अवशेष साबुत बरतनों के रूप में या ठीकरों के रूप में मिलते हैं। मौर्य काल से संबंद्ध मृद्भांड कई प्रकार के हैं। सबसे उन्नत तकनीक, उत्तरी काले ओपदार भांडों में देखी जा सकती है। कई प्रकार के अनगढ़ लाल और धूसर भांड भी मिलते हैं। भांड, पिसी मिट्टी से बने हैं। अनुभाग से देखने पर इनका रंग धूसर या कभी कभी लाल रंग की आभा लिए दिखाई देता है।

इस पर एक कांतिमय चमकीली सजावट है जिसकी चमक का स्वरूप रंग में गहरे काले से लेकर धूसर या धातु सदृश इस्पाती नीले रंग का है। कभी कभी सतह पर लाल भूरे धब्बे दिखाई देते हैं। इसकी विशेष चमक और कांति के आधार पर इसे अन्य ओपदार या काले सीसे के लेप वाले लाल भांडों से अलग किया जा सकता है ये भांड मुख्य रूप से रकाबियों और छोटे कटोरों के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। यह गंगा की घाटी में ये बहुतायत से प्राप्त हुए हैं। कभी कभी इन भांडों के आधार पर स्तरों का तिथिनिर्धारण करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि बहुत से ठीकरे बारिश से धुल गए हैं। (Rare piece of Mauryan)

इन भांडों के उत्पादन का मूल स्थान अभी निर्धारित नहीं किया जा सका है यद्यपि अधिक आधुनिक विचारधारा है कि यह स्थान गंगा की घाटी के मध्य में शाहकुंड,सुल्तानगंज कौशांबी और पटना के इर्दगिर्द के प्रदेश में था। यह अनुमान इस क्षेत्र में इन भांडों के घने वितरण और बहुतायत से मिलने पर आधारित है। सुझाव दिया गया है कि पूर्वी राजस्थान,पश्चिमी,मध्य और पूर्वी भारत, सभी ने कुछ संख्या में व्यापारियों या तीर्थयात्रियों के जरिए इन भांडों का आयात किया। एक साहित्यिक स्रोत में मृद्भांडों के पुंजोत्पादन और निर्यात का उल्लेख है। संभव है कि यह वर्णन मीर्य काल से संबंधित है।

निश्चय ही भांडों के निवांत के लिए शाहकुंड और सुल्तानगंज उपयुक्त स्थान होगा। यद्यपि इतने विरल नहीं थे फिर भी ये अन्य किस्मों से ज्यादा कीमती थे। तक्षशिला में यह मिट्टी के मृदभांड उतने नहीं मिलते जितना गंगा घाटी के आस पास मिलता है। यह भी निश्चित नहीं है कि भारत में इस प्रक्रिया की शुरुआत कब हुई। प्रश्न है कि यह तकनीक यूनानियों से सीखी गई थी या वह यूनानियों के आने के पहले ही भारत में ज्ञात थी। यूनानी काले भांड, जिन्हें तक्षशिला में पाने का मार्शल ने दावा किया है। (Rare piece of Mauryan)

तक्षशिला में भिर के टीले से 300 ईसा पूर्व के जो उत्तरी काले ओपदार के ठीकरे मिले हैं, उनसे संकेत मिलता है कि ये यूनानियों के आने के पहले प्रचलित रहे हो सकते हैं। हाल में भिर के टीले पर किए गए उत्खनन में यूनानी स्तर पर सिकंदर का एक सिक्का मिला है। यह इंगित करता है कि सिकंदर के आक्रमण के पहले उत्तरी काले ओपदार भांड प्रयोग में लाए जाते थे। फिर भी यह अवश्य संभव है कि ये ठीकरे ऊपरी स्तरों से नीचे की ओर दुलक गए हैं। इस क्षेत्र में नए और अधिक विस्तृत उत्खनन द्वारा ही समस्या का समाधान किया जा सकता है।

इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण वह तथ्य है कि तक्षशिला में बाद के स्तरों पर भी ये भांड उतनी बहुतायत से नहीं मिलते जितनी बहुतायत से ये गंगा की घाटी में मिलते हैं। राजगीर में भांड संपूर्ण मौर्य स्तर पर सादे काले भांडों के साथ पाए गए थे।’ दोनों प्रकार के भांडों का आकार एक सा था। इनके बीच अंतर सिर्फ इतना था कि सादे काले भांडों पर वह लेप नहीं किया गया जो भांडों की चमक के लिए उत्तरदायी था। यहां भांडों में ज्यादातर रकाबियां और सीमित प्रकार के किनारे वाले कटोरे प्राप्त हुए हैं। (Rare piece of Mauryan)

मौर्य स्तरों पर पाए जाने वाले अन्य भांड अधिकांशतः घूसर या लाल रंग के हैं। शिशुपालगढ़ पर हाल में किए गए एक उत्खनन में काल के तिथि 300-200 ईसा पूर्व मानी 1 जाती है, सादे भांड प्राप्त हुए हैं। ये मलिन धूसर या लाल रंग के और यदाकदा ओपदार हैं। ये पकाने की एक उन्नत तकनीक का प्रमाण देते हैं। यहां भांडों के ठीकरे भी पाए गए थे। 200 ईसा पूर्व 100 ईसवी के काल ॥ अ स्तर पर अधिक उन्नत मृद्मांड दिखाई देते हैं। इन पर आसंजन (अप्लाइड) और कर्तित संकरण (इनसाइड डेकोरेशन) है।

अहिच्छत्र में किए गए उत्खनन में मौर्य स्तर पर अनेक प्रकार के मृद्भांड मिले हैं।” स्तर VIII (स्ट्रैटम V) से जिसकी तिथि 300-200 ईसा पूर्व है, दोनों सादे और अलंकृत धूसर और लाल भांड पाए गए थे। इस युग के सादे भांडों और पहले के भांडों के बीच इस आधार पर अंतर किया जा सकता है कि ये अधिक भारी हैं और रंग में कुछ हल्कापन लिए हैं। कुछ भांड लेप वाले हैं। (Rare piece of Mauryan)

अधिकांशतः लाल भांडों के उदाहरण मर्तबान सदृश बर्तनों में मिलते हैं। इनकी दीवारें पतली हैं और आकार हल्का है। ये एक उन्नत तकनीक का प्रमाण देते हैं। लेकिन आकार में इन मर्तबानों की गरदन अधिक सुनिर्धारित नहीं है। इस युग के अधिक विशिष्ट भांड वे थे जिन्हें पकाकर एक गहरा पांडु रंग दिया गया था।


यह भी पढ़ें: शाहकुंड की कहानी मौर्यकालीन ईंटों की जुबानी


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