प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में तैयार हुए नए संसद भवन का विनायक दामोदर सावरकर की 140वीं जयंती के मौके पर 28 मई को उदघाटन होगा। सावरकर को अपना आदर्श मानने वाले पीएम मोदी खुद ही उद्घाटन करेंगे। आदिवासी बैकग्राउंड की भारतीय गणराज्य की मुखिया राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू उद्घाटन समारोह में आमंत्रित नहीं हैं। इस मौके पर प्रधानमंत्री सेंगोल नाम के कथित राजदंड प्रतीक को भी धारण करेंगे। (Sengol In A Democracy)
यह सब सियासी गलियारे में फिलहाल विवाद का विषय है और 19 विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति को आमंत्रित न करने और उनसे उदघाटन न कराने को लेकर समारोह का बहिष्कार कर दिया है। पूरे ही मामले में देखा जाए तो सरकार की ओर से प्रतीक के माध्यम से जो हो रहा है, वह सब आपस में गुंथा हुआ है। इस बात को सेंगोल के जरिए बखूबी समझा जा सकता है।
क्या नए संसद भवन के उदघाटन अवसर पर राजदंड प्रतीक सेंगोल का प्रधानमंत्री द्वारा धारण करना लोकतंत्र की भावना को प्रकट करता है? हम इस को समझने का प्रयास करेंगे।
सबसे पहले सेंगोल के बारे में जानते हैं- मेनस्ट्रीम मीडिया के एंकर सेंगोल का सबसे ज्यादा प्रचार कर रहे हैं और यह भी बता रहे हैं कि सबसे पहले सेंगोल को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ब्रिटिश सत्ता के अंतिम वायसराय माउंटबेटन से ग्रहण किया था, जब सत्ता हस्तांतरण हुआ था। सेंगोल के बारे में यह भी बताया जा रहा है कि यह प्राचीन चोल साम्राज्य का राजदंड प्रतीक था। (Sengol In A Democracy)
असल में यह दोनों ही बातें सामंतवादी राजतंत्र को गौरवान्वित करने वाली हैं, लोकतंत्र में इनका कोई महत्व नहीं है। पंडित नेहरू को ब्रिटिश साम्राज्य की ओर से राजदंड सौंपा गया, क्याें? क्योंकि ब्रिटेन में राजतंत्र ही था, जिसके सामंती नखरे आज भी मौजूद हैं। ऐसे राजतंत्र वालों के लिए सत्ता लोक सहमति के आधार पर नहीं, ठूंठ जैसे किसी डंडे-मुकुट जैसी चीजें होती हैं। वहां महारानी, महाराजा, प्रिंस जैसे पद आज भी कायम हैं।
दुनियाभर में लूटमार और हत्याकांड करने वाले गिरोह की सरदार कथित महारानी कुछ अरसे पहले मरीं तो उनमें आस्था रखने वालों ने झंडे तक झुका दिए। साल 1947 में ब्रिटेन ने अपनी राजतंत्रीय मानसिकता के हिसाब से पंडित नेहरू को राजदंड दिया, जब भारतीय गणतंत्र के निर्माण की शुरुआत नहीं हुई थी, न संविधान था और न जी लोक से निर्वाचित कोई सत्ता थी। पंडित नेहरू ने यह राजदंड ग्रहण कर कांग्रेस के सामंती दबदबे को जाहिर किया।
फिर शुरू हुआ लोकतंत्र का निर्माण। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद राजतंत्र, राजदंड, राजागिरी, रानीगिरी खत्म हो गई। राजा नवाब खानदान वालों को हम सबने जेल जाते देखा है, अपनी पार्टी के नेताओं के बैग ढो रहे हैं बेचारे। लोकतंत्र ने राजतंत्र को उसकी हैसियत बता दी, कि उनका युग खत्म हो चुका है। आज राजा और राजदंड का कोई मानी नहीं है। न ही इनको ग्रहण करने वाला राजवंश चलाने वाला हो सकता है।
अच्छी बात ये है कि मौजूदा प्रधानमंत्री का मैरिटल स्टेटस भी राजवंश की स्थापना करने वाला नहीं है। ऐसे राजदंड का उपयोग सिर्फ इतना ही हो सकता है कि ये संसद के किसी कोने में पड़ा रहे या फिर इसको इतनी पावर दे दी जाए कि जिसके हाथ में आए, वही प्रधानमंत्री बन जाए और मतदान जैसी प्रक्रिया रद हो जाए। (Sengol In A Democracy)
टीवी चैनलों के एंकर कह रहे हैं कि सेंगोल चोल साम्राज्य का प्रतीक राजदंड है। अच्छी बात है, लेकिन क्या चोल साम्राज्य भारतीय गणतंत्र या लोकतंत्र से मेल खाता है?
भारत के प्राचीन इतिहास के अंतिम छोर पर नौ से 12वीं शताब्दी के बीच रहे चोल साम्राज्य का इतिहास बताता है कि उनके शासनकाल में ब्राह्मणों को ज्यादा अधिकार हासिल थे और समाज के बाकी लोगों से खुद को श्रेष्ठ दिखलाने के लिए अलग से बस्तियां बसाना शुरू कर दी थीं।
सामाजिक व्यवस्था को ब्राह्मणवादी धर्मशास्त्रों के आदेशों और आदर्शों के हिसाब से चलाने की कोशिश होती थी। कुलोत्तुंग प्रथम के शासनकाल में शास्त्रों के आधार नीची जातियों के लिए जीविका का निर्देश दिया गया। उच्च वर्ग के पुरुष बहुविवाह करते थे। सती का प्रचार था। मंदिरों में देवदासियां रहा करती थीं। समाज में दासप्रथा प्रचलित थी। दासों की कई कोटियां होती थीं। तमिल धार्मिक पद वेदों जैसे पूजित होने लगे और उनके रचयिता देवता स्वरूप माने जाने लगे।
इस युग के धार्मिक जीवन में मंदिरों का विशेष महत्व था। छोटे या बड़े मंदिर, चोल राज्य के प्राय: सभी नगरों और गांवों में इस युग में बने। मंदिरों के स्वामित्व में भूमि भी होती थी और कई कर्मचारी इनकी अधीनता में होते थे।
चोल ही नहीं, उनके समकालीन शासकों के राज्यों में ब्राह्मण धर्म उन्नति पर था। चालुक्य नरेशों ने भी मंदिर बनवाए, वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान करते थे और ब्राह्मणों का सत्कार करते थे। (Sengol In A Democracy)
इसके बाद सल्तनतकाल शुरू हुआ और फिर उपनिवेशकाल और फिर बाबा साहेब के लिखे भारतीय संविधान ने सभी गैरलोकतांत्रिक राजतंत्रवादी, ब्राह्मणवादी परंपराओं को खारिज कर दिया। लोक को सबसे ऊपर कर दिया। प्राचीन सभ्यता और लोक को सर्वोच्च रखकर शासन करने वाली, शांति, समानता का प्रचार करने वाली सबसे ताकतवर विरासत सम्राट अशोक के धम्म चक्र, सिंह, सिंधु घाटी सभ्यता के प्रतीकों ने राज चिह्न की जगह ली।
क्या भारत के लोकतंत्र में स्थापित राज चिह्न की जगह किसी ब्राह्मणवादी क्षेत्रीय राजा के राजदंड को दी जा सकती है, जिसके राज में देवदासी जैसा कलंक रहा हो, जिसको रोकने के लिए संविधान को डंडा चलाना पड़ा हो?
लेकिन, विनायक दामोदर सावरकर को यही पसंद था और उनकी शासक पीढ़ी को भी यही पसंद है….ये पसंदगी कहां तक जा सकती है, अंदाजा लगाइए।
(आशीष आनंद Indus News 24×7 के कार्यकारी संपादक हैं।)