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Thursday, May 1, 2025
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तो इस वजह से इंदिरा गांधी कहलाईं आयरन लेडी

शाहनवाज़ आलम

संघ का एक आजमाया हुआ तरीका अपने विरोधियों को नकारने, चरित्रहनन करने और अंत में कुछ न कर पाने पर उसकी पूरी छवि को ही अपने रंग में रंगने की रही है. ताकि उससे चुनौती कम से कम मिले. आयरन लेडी के नाम से विख्यात पूर्व प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी की छवि के साथ भी संघ परिवार ने यही प्रयोग करने की कोशिश की थी. यह कुछ कुछ वैसा ही था जैसे 2014 के बाद आई मोदी सरकार ने महात्मा गांधी की वैचारिक छवि बदलने के लिए उन्हें स्वच्छता अभियान का पोस्टर बॉय बनाकर की थी. (Indira Gandhi was Iron Lady)

मैं अमूमन लोगों से यह पूछता हूँ कि इंदिरा गांधी को पहली बार आयरन लेडी क्यों और कब कहा गया. इसके जवाब में ज़्यादातर लोग 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध और बांग्लादेश निर्माण को इसकी वजह बताते हैं. लेकिन यह संघ के उसी रणनीति का परिणाम है जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है. दरअसल, इंदिरा गांधी के आयरन लेडी कहे जाने की कहानी आरएसएस के एक देश विरोधी कृत्य से जुड़ी है जिसे बहुत शातिराना तरीके से भुलाने की कोशिश की जाती रही है. हुआ यह था कि 7 नवम्बर 1966 को संसद भवन पर आरएसएस से जुड़े साधुओं की एक भीड़ ने गाय को लेकर क़ानून बनाने की माँग के नाम पर हमला कर दिया. जिसका नेतृत्व जनसंघ के करनाल के सांसद स्वामी रमेश्वरानंद कर रहे थे.

एक घंटे तक जैसी भयानक अराजकता हुई, दिल्ली ने 1947 के बटवारे के बाद ऐसा पहली बार देखा था. सरकारी संपत्ति को करोड़ों की क्षति हुई. संघ के हमलावरों ने एक पुलिस जवान की हत्या भी कर दी. इंदिरा गांधी ने सख्ती की हिदायत दी और 6 हमलावर मारे गए. उन्होंने गुलजारीलाल नंदा जो गृहमंत्री थे, को शुरुआती शिथिलता के कारण दूसरे ही दिन पद से हटा दिया. जिस दिन यह हमला हुआ, उस दिन इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव भी आना था और उन्हें बमुश्किल 10 महीने ही सत्ता में हुए थे. कांग्रेस के अंदर का इंदिरा विरोधी गुट उन्हें तब तक गूंगी गुड़िया बता कर उन्हें कमज़ोर और निर्णय न ले पाने वाली नेता के बतौर प्रचारित करता रहा था.

इस घटना के बाद अंग्रेज़ी मीडिया खासकर द स्टेटसमैन अखबार ने इंदिरा गांधी के लिए ‘आयरन लेडी’ उपमा का इस्तमाल करना शुरू किया. इस उपमा के बाद इंदिरा गांधी की छवि जहाँ कठोर निर्णय लेने वाली नेता की बनी जिससे उनका विरोधी गुट कमज़ोर पड़ा वहीं यह संदेश भी गया कि संवैधानिक मूल्यों और संस्थाओं पर किसी भी तरह के हमलों का वह मुहतोड़ जवाब देने में सक्षम हैं. चाहे यह हमला संस्कृति और धर्म की आड़ में ही क्यों न किया गया हो. (Indira Gandhi was Iron Lady)

ज़ाहिर है संघ परिवार कभी नहीं चाहेगा कि कोई यह जाने कि इंदिरा गांधी को आयरन लेडी का ख़िताब उनके खिलाफ़ ही सख़्त कार्यवाई के लिए मिली थी.

इस कलंक को छुपाने के लिए ही संघ ने 5 साल बाद हुए पाकिस्तान के खिलाफ़ युद्ध में उसे हराने और बांग्लादेश के निर्माण के इर्द गिर्द इंदिरा गांधी को लेकर यह नैरेटिव गढ़ना शुरू किया क्योंकि वह उसे मुस्लिम बहुल पाकिस्तान के विभाजन के लिहाज से सूट करता था. जबकि सच्चाई यह है कि इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के खिलाफ़ युद्ध वहाँ की अल्पसंख्यक बंगाली भाषी लोगों की स्वतंत्र होने की लोकतांत्रिक आकांक्षा को पूरा करने के लिए खुद उनके आग्रह पर किया था ना कि किसी सांप्रदायिक द्वेष के तहत. समझा जा सकता है कि पड़ोसी मुल्कों के लोगों को इंदिरा गांधी पर कितना भरोसा था कि वो अपनी जायज़ आकांक्षाओं के लिए सैन्य समर्थन तक की माँग तब भारत से कर सकते थे.

आज हम देखते हैं कि नरेंद्र मोदी के प्रधान मन्त्री बनने के बाद पड़ोसी मुल्क नेपाल में लोकतंत्र को समाप्त कर फिर से राजशाही स्थापित करने तक की माँग वहाँ की राजशाही समर्थक शक्तियाँ करने लगी थीं. राजनेता विचारों के प्रतीक होते हैं. इंदिरा लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतीक थीं. इसीलिए फिलिस्तीन और क्यूबा समेत तीसरी दुनिया के तमाम देश उनकी तरफ देखते थे. इन्हीं मूल्यों के नैतिक बल पर वो अमरीकी राष्ट्रपति को उन्हीं के घर पर आँख दिखा सकती थीं. (Indira Gandhi was Iron Lady)

इसीलिए जब संघ इंदिरा गांधी द्वारा इमर्जेंसी लगाने की बात करता है तब उसके दावों को गहराई से परखने की ज़रूरत है. क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि जिस संगठन का लेस मात्र भी लोकतंत्र में यकीन न हो, जो नागरिक अधिकारों का खुला विरोधी हो, उसे किसी इमर्जेंसी से दिक्कत हो? इस सवाल पर जब आप सोचें तो इन दो परिस्थितिजन्य तथ्यों को ज़रूर संज्ञान में रखें-

1- 1971 में इंदिरा गांधी ने संविधान में 26 वां संशोधन करके राजाओं को मिलने वाले मुआवजे जिसे प्रीवी पर्स कहा जाता था, को समाप्त कर दिया था. इंदिरा सरकार ये पैसा दलितों के विकास पर लगाना चाहती थी. ये महाराजा लोग संघ और जनसंघ के सबसे बड़े आर्थिक स्रोत थे. इस स्रोत के कटने से हिंदुत्ववादी शक्तियाँ तिलमिलाई हुई थीं. उन्होंने रजवाड़ों को प्रोत्साहित करके उन्हें कांग्रेस के खिलाफ़ चुनाव में उतारकर एक तरह से इसे पलटने की राजनीतिक कोशिश भी की थी.

2- नव निर्माण के नाम पर इंदिरा गांधी के खिलाफ़ चलाया गया आंदोलन शुरू तो गुजरात के एक हॉस्टल के मेस की फीस को लेकर हुआ था लेकिन समाजवादी और संघी गठजोड़ ने आंदोलन का केंद्र बिहार बना दिया. जिसके कांग्रेसी मुख्यमन्त्री का नाम अब्दुल गफूर खान था. यानी यह पूरा ड्रामा ही एक मुस्लिम मुख्यमन्त्री को हटाने के लिए रचा गया था. जिसका एक नारा था- गाय हमारी माता है- गफूर उसको खाता है. यह वो दौर था जब कांग्रेस ने मुसलमानों को मुख्यमन्त्री बनाना शुरू किया था. यह सिलसिला आगे राजस्थान में बरकतुल्ला खान, असम में सय्यदा अनवरा तैमूर, महाराष्ट्र में अब्दुल रहमान अंतुले, पोंडिचेरी में हसन फारुख तक चला. संघ और समाजवादी धारा को यह पसंद नहीं आया. उन्होंने आंतरिक अराजकता का माहौल बनाना शुरू कर दिया. आधुनिक संदर्भ में इसे अन्ना आंदोलन जैसा कह सकते हैं.

इंदिरा गांधी ने रजवाड़ों-पूंजीपतियों और साम्प्रदायिक शक्तियों के इस गठजोड़ के खतरे को भांप लिया था. इसीलिए इमर्जेंसी लगाने के बाद सबसे पहला काम संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द को जोड़ने का किया. ताकि दलितों, कमज़ोरों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर किसी तरह की कोई आंच न आए. (Indira Gandhi was Iron Lady)

याद रहे मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के पहले गणतंत्र दिवस यानी 26 जनवरी 2015 को सभी अखबारों में संविधान की पुरानी प्रस्तावना को ही विज्ञापित करवाया था जिसमें ये दोनों शब्द नहीं थे. जिसे सवाल उठने पर सरकार ने ‘भूल’ बता दिया था. लेकिन यह भूल नहीं थी. इसीलिए हम देखते हैं कि पिछले 3 साल में दो बार राज्य सभा में भाजपा सांसदों ने संविधान से इन दोनों शब्दों को हटाने के लिए प्राइवेट मेम्बर बिल पेश कर दिया है.

इंदिरा गांधी को उनकी पुण्यतिथि पर याद करते हुए इस तथ्य को भी संज्ञान में रखा जाना चाहिए कि उनकी हत्या से कुछ दिन पहले ख़ुफ़िया विभाग ने उन्हें सूचित कर दिया था कि एक समुदाय विशेष के उनके अंगरक्षकों से उन्हें खतरा है और इसलिए उन्हें वो हटा दें. लेकिन उन्होंने यह कहते हुए ऐसा करने से इनकार कर दिया कि हो सकता हो सूचना सही हो लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रमुख होने के नाते वे ऐसा नहीं कर सकतीं. उनकी शहादत अपने शब्दों और मूल्यों के प्रति समर्पण और उनकी रक्षा के लिए जान तक दे देने की उनके अदम्य साहस का प्रतीक है. यही मूल्य आज फिर खतरे में हैं. उनके पोते राहुल गांधी इन्हीं मूल्यों की रक्षा के लिए उन्हीं ‘हम भारत के लोग’ के बीच हैं जिन्होंने इसे बनाया और खुद को आत्म अर्पित किया था. (Indira Gandhi was Iron Lady)

(लेखक उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, और यह लेखक के निजी विचार हैं)


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