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Thursday, May 1, 2025
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पूंजीवाद के संकट और युद्ध की ज़रूरत

-मुकेश असीम

विध्वंसक व बर्बर खुली फौजी जंग असंभव तो नहीं, पर संभवतः अभी कुछ दूर की चीज है। किंतु दूसरे रूपों में अब अमरीका-चीन जंग लड़ने ही लगे हैं। क्लॉजविट्ज ने कहा ही है कि जंग राजनीति को ही दूसरे तरीकों से जारी रखती है। (Capitalism and Need for War)

दोनों तरफ से दांव पेंच चले जा रहे हैं। इसका मौजूदा रूप निर्यात नियंत्रण नियमों का है। चीन अपने पास मौजूद ऐसे दुर्लभ प्राकृतिक संसाधनों को नियंत्रित कर रहा है जिनके बगैर कई आधुनिक उद्योग मुश्किल हैं। अमरीका के पास इसकी काट उच्च तकनीकी शोध व कौशल पर उसका प्रभुत्व है क्योंकि वह दुनिया भर के उच्च शिक्षित व कुशल व्यक्तियों के लिए दरवाजे खुले रखता है और इसलिए इस क्षेत्र की भाषा भी अंग्रेजी बन गई है। 

जो बाइडेन ने अपना नया हमला यहीं बोला है। चीनी सेमीकंडक्टर (चिप) उद्योग में काम करने वाले अमरीकियों को काम छोडने या अमरीकी नागरिकता छोडने का विकल्प दिया गया है और दो दिन के अंदर ही एक के बाद एक कंपनी से सभी अमरीकी नागरिकों (जिनमें चीनी मूल के अमरीकी शामिल हैं) के इस्तीफों की खबर आने लगी है। लंबे अरसे के लिए तो नहीं, पर कुछ सालों के लिए यह चीनी सेमीकंडक्टर उद्योग के लिए बडा झटका सिद्ध होगा क्योंकि ऐसे क्षेत्र में इतने कुशल इंजीनियर शीघ्रता से प्रशिक्षित करना अत्यंत मुश्किल होगा। (Capitalism and Need for War)

इस जंग में चीन धीमे व हिचक भरे कदम उठाने के लिए मजबूर है क्योंकि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पतन के बाद चार दशक तक उसने अपनी अर्थव्यवस्था का ‘विकास’ अपने मजदूर वर्ग द्वारा अमरीकी वित्तीय पूंजीवाद की गुलामी के जरिए किया है, जिसे निर्यात आधारित आर्थिक वृद्धि कहा जाता है। पोलिटिकल इकॉनमी को ऊपर-ऊपर से देखने पर उसकी निर्यात क्षमता उसकी शक्ति नजर आती है, पर वास्तविकता में यह उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। 

किसी भी देश के लिए निर्यात तभी लाभप्रद है जब वह उसके बदले अपनी जरूरत की चीजें आयात करे। नेट निर्यात का अर्थ है कि अपने श्रमिकों के श्रम के उत्पाद को अपने देश में उपभोग करने के बजाय बेच कर, बदले में उपभोग के लिए कुछ प्राप्त करने के बजाय विदेशी मुद्रा ली गई। अर्थात किसी कंजूस की तरह उपभोग घटा कर मुद्रा इकट्ठी की गई। पर विदेशी मुद्रा का अपने देश में कुछ किया नहीं जा सकता, यह तो विदेश में ही खर्च की जा सकती है। अतः इसे विदेशों को कर्ज के तौर पर देना पडता है या वहां कुछ संपत्ति खरीदनी पडती है। चीन यही कर रहा है – उसका 2 ट्रिलियन डॉलर से अधिक अमरीकी बैंकों में जमा है जबकि बेल्ट एंड रोड के जरिए वह दुनिया भर में संपत्ति खरीद रहा है।(Capitalism and Need for War)

उधर अमरीकी बैंक इसी जमा को कर्ज देकर वहां उपभोग बढा रहे हैं। कुल मिलाकर चीन के दिये गए कर्ज से ही चीनी माल की बिक्री वहां हो रही है जबकि चीनी जनता के उपभोग का स्तर उसकी उत्पादकता की तुलना में नीचा है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि चीनी श्रमिकों के उपभोग में कमी विदेशी मुद्रा भंडार व संपत्ति खरीद के बराबर है। इतनी मात्रा चीनी मजदूरों की मजदूरी में कटौती कर जुटाई गई है अन्यथा उनका जीवन स्तर इतना अधिक ऊंचा हो जाता।

सामान्य पूंजीवादी स्थिति में यह चलता है क्योंकि पूंजीपतियों के लिए देश-विदेश समान है, जहां मुनाफा हो। पर जंग की स्थिति में अमरीका इस पूरी रकम को हजम कर लेगा, जैसा लंदन व न्यूयॉर्क के वित्तीय केंद्र होने के कारण अमरीका-ब्रिटेन, बहुत से मुल्कों के साथ कर चुके हैं – इरान, वेनेजुएला, व 350 अरब डॉलर गंवा कर, रूस इसके ताजे उदाहरण मात्र हैं

इस कीमत पर भी निर्यात आधारित वृद्धि के आधार पर ‘विकसित’ चीन के लिए इससे पीछे हटना आसान नहीं, नेट निर्यात को अचानक कम करने से कई करोड़ कामगार बेरोजगार हो जाएंगे, पहले से ही बढते आर्थिक संकट और अर्थव्यवस्था में कर्ज के बढते बोछ से जूझते चीनी पूंजीवाद के लिए यह बडा राजनीतिक संकट पैदा कर देगा। (Capitalism and Need for War)

यही वह वजह है जिससे अंधराष्ट्रवाद, धमकियां व जंगी माहौल बनाने में अमरीकियों से पीछे न होते हुए भी चीनी शासक फिलहाल ऐन मौके पर अमरीकी रूख के मुकाबिल हिचकते व रक्षात्मक नजर आते हैं, जैसा नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा की चुनौती के वक्त नजर आया था।

(लेखक यथार्थ मैगजीन के संपादक हैं और ये उनके के निजी विचार हैं)

(लोक माध्यम से साभार)


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