गेहूं धान की खेती करने वाले, सब्जी फल फूल की खेती करने वाले, पशुपालन करके दूध बेचकर अपना जीवन यापन करने वालों की और बढ़ई, लोहार, कुम्हार, चर्मकार, बुनकर जैसी सैकड़ो कारीगर जातियों की लड़ाई राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले ने शुरू की। लड़ाई सामाजिक थी और लड़ाई सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ थी, लड़ाई मनु की सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ थी, जिस व्यवस्था को खुद को ब्राह्मण कहने वाले चंद पुरोहित लोग नियंत्रित कर रहे थे। जिन्होंने खुद को खुद ही ईश्वर के नाम पर किताबें लिखकर सर्वश्रेष्ठ बनाया हुआ था और बाकी पूरे समाज को मानसिक गुलाम बनाया हुआ था और उनका सामाजिक राजनीतिक आर्थिक शोषण कर रहे थे। (Brahminism killed social justice)
खेती करने वाले, कृषि बागवानी करने वाले, पशुपालन करने वाले और कारीगर जातियों की हालत ऐसी थी कि यह लोग सम्मान क्या होता है, इसे भूल चुके थे, जानवरों से भी बदतर जिंदगी जी रहे थे। ज्योतिबा फुले ने मनुवाद और ब्राह्मणवाद को नियंत्रित कर रहे लोगों के खिलाफ किताबें लिखीं, उनके साहित्य को फर्जी बताया और उन्हें गहरी चुनौती दी। अंग्रेजों के साथ लगातार संवाद किया।
राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले की इसी लड़ाई का आगे देश के अंग्रेजी शासन पर और देश में छोटी-छोटी रियासतों पर गहरा असर पड़ा। अंग्रेजों ने और रियासत के राजाओं ने इन कमजोर वर्गों के बारे में सोचना शुरू किया और धीरे-धीरे उनके हालात में सुधार आया।
आज इतना सुधार हो चुका है कि कृषि, कृषि बागवानी, पशुपालन और कारीगर जातियां सम्मानजनक जीवन जी रही हैं। खुद को मजबूत कहकर और ब्राह्मणों के पुस्तकों के फर्जी देवताओं और अमानवीय वर्णव्यवस्था से जोड़कर दबंगई करने वाली ओबीसी जातियां भी किस बुरी हालत में थी यह जानने के लिए आप ज्योतिबा फुले की पुस्तक “किसान का कोड़ा” पढ़ सकते हैं। (Brahminism killed social justice)
राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले ने जिस लड़ाई को लड़ा था उसका आगे चलकर क्या हाल हुआ अब यह बताता हूं। ज्योतिबा फुले ने जिस ब्राह्मण साहित्य के खिलाफ लिखकर इन लोगों को अधिकार दिलाए आज यह जातियां इसी ब्राह्मण साहित्य में अपने पूर्वज ढूंढने लगे। कृषि, पशुपालन करने वाली जातियां राम, कृष्ण जैसे काल्पनिक कथा पात्रों की वंशज बन गईं। देशभर में फैली कारीगर जातियां भी खुद को वर्णव्यवस्था से जोड़कर ब्राह्मण, वैश्य बताने लगीं। यह लोग यह भूल गए इसी वर्ण व्यवस्था के कारण इनकी जिंदगी जानवरों से भी बदतर थी।
जिस वर्ण व्यवस्था ने ओबीसी जातियों की हालत जानवरों से भी बदतर कर रखी थी उसी वर्ण व्यवस्था से खुद को जोड़ने लगीं। 100 साल पहले जिन्हें सुबह की रोटी का नहीं पता होता था वे जातियां 5000 साल का इतिहास ब्राह्मणों की किताबों से खोज कर बड़े-बड़े दावे करने लगीं।
इस तरह के दावा करने का निकम्मापन यदि आम लोगों ने किया होता तब सही था परंतु पिछड़ी जातियों के अर्थात किसान, किसान-बागवान, पशुपालक जातियों के नेता और सामाजिक कार्यकर्ता भी खुद को ब्राह्मणों की उन्हीं किताबों में खोजते घूमते हैं जिन किताबों ने उनकी हालत बद से बदतर की हुई थी। (Brahminism killed social justice)
अब अपने मुद्दे पर आता हूं कि किस तरह मजबूत पिछड़ी जातियों ने सामाजिक न्याय की हत्या की। पिछड़ी जातियों ने विकास जरूर किया परंतु सामाजिक राजनीतिक ईमानदारी बिल्कुल नहीं सीख सके। पिछड़ी जातियों में आपसी मेल मिलाप बिल्कुल भी नहीं हुआ। किसान, पशुपालक, किसान-बागवान जातियों ने अपनी अपनी गोलबंदी शुरू कर दी और तेली लोहार कुम्हार नाई जैसी कम संख्या वाली जातियों ने भी बेमतलब की जातीय गोलबंदी की, यदि कार्य कर जातियां मिलकर एक हो जाती तब इनका लाभ भी था परंतु एक-एक परसेंट संख्या की गोलबंदी करनी शुरू कर दी।।
पिछड़ी जातियों के सामाजिक कार्यकर्ताओं और नेताओं की पहली गलती यह है कि जिस ब्राह्मणवाद से लड़कर हमारे सामाजिक नेताओं ने हमें आजादी दिलाई हम उसी में अपने पूर्वजों को खोज रहे हैं जबकि ब्राह्मणों की किताबों से पिछड़े दलित आदिवासी जातियों का कोई लेना-देना नहीं है।
दूसरी बात यह है कि सभी नेता अपनी जातीय गोलबंदी करके सामाजिक न्याय की हत्या कर रहे हैं और पिछड़े वर्ग के कमजोर वंचित मजदूर किसानों के मुद्दे गौड़ से हो गए हैं।
जरूर इस बात की थी कि सभी पिछड़े वर्ग के लोग मिलकर एक सामाजिक सांस्कृतिक और बौद्धिक संघ विकसित करते और प्राचीन भारत के अपने गौरवशाली इतिहास को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयास करते। लेकिन हमारे सभी नेता और बौद्धिक वर्ग लुटिया चोर निकले और अभी तक कोई ऐसा बौद्धिक वर्ग खड़ा नहीं हो सका। (Brahminism killed social justice)
जरूरत इस बात की है कि सभी पिछड़े वर्ग के लोग मिलकर एक सामाजिक सांस्कृतिक बौद्धिक वर्ग विकसित करें जिसमें हम अपनी सभ्यता संस्कृति की बात करें।
मजबूत हो गए वर्ग भी इतने हीन भावना से ग्रस्त हैं कि पशुपालक खुद को पशुपालक न मानकर ब्राह्मणों की किताब महाभारत के एक काल्पनिक चरित्र के वंशज बने घूमते हैं। और कृषि बागवानी से जुड़े लोग ब्राह्मणों की एक पुस्तक रामायण के काल्पनिक कथा पात्रों के वंशज बने घूमते हैं।
पिछड़े वर्ग के लोगों की हीन भावना तब तक खत्म नहीं हो सकती जब तक हम अपना सामाजिक सांस्कृतिक और अपनी प्राचीन सभ्यता को पुनर्जीवित नहीं करेंगे।
जब तक अपनी सभ्यता संस्कृति और सामाजिक बौद्धिक वर्ग विकसित नहीं होता तुम मुख्यमंत्री भी बन जाओगे तब भी उनके चरणों में ही रहोगे जिन्होंने तुम्हें अपने चरणों में बैठाने लायक भी नहीं समझा था। (Brahminism killed social justice)
असली सामाजिक न्याय भी तभी हो सकता है जब पिछड़ा वर्ग अपने अंतर्जातीय द्वंद्व को खत्म कर एक सामूहिक सामाजिक सांस्कृतिक और सभ्यता आधारित मिशन विकसित करें और अपना एक सामाजिक न्याय का एजेंडा तय करें।
-संतोष शाक्य, सहसंपादक, Indus News
संतोष शाक्य Indus News के सहसंपादक के साथ उत्तर प्रदेश के प्रमुख भी हैं। संतोष शाक्य पत्रकार के साथ एक अच्छे लेखक एवं सामाजिक चिंतक भी है, वे समाज हित में देश के वंचित तबकों से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर लिखते रहते हैं।