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Wednesday, April 30, 2025
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हिंदुस्तानी यथार्थवादी सिनेमा के स्कूल का पहला नाम: बिमल रॉय

अमरीक सिंह


महान फिल्मकार बिमल रॉय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त ऐसी हिंदुस्तानी सिनेमाई हस्ती थे जिन्हें अपने आप में एक ‘स्कूल’ का दर्जा हासिल हुआ और यह उनके जिस्मानी अंत के बाद भी यथावत कायम है। इतिहास में कालजयी फिल्मकार के बतौर अपना नाम दर्ज करवाने वाले वह पहले भारतीय नागरिक थे। उन्होंने इस देश में यथार्थवादी सिनेमा की बुनियाद रखी थी और जीवित रहते ही वह एक किंवदंती बन गए थे। (School Indian Realistic Cinema)

दिलीप कुमार को अभिनय सम्राट और ट्रेजडी किंग का खिताब उन्हीं की बदौलत मिला जो जीवनपर्यंत उनकी पहचान बना रहा। नई पीढ़ी जब गूगल पर महान फिल्मों की सूची तलाशती है तो सबसे पहले उसे बिमल रॉय द्वारा निर्देशित फिल्मों की कतार नजर आती है। बेशक वह कतार ज्यादा लंबी तो नहीं लेकिन बेहद गहरी ज़रूर है।

आज भी जब बिमल रॉय की फिल्में देखते हैं तो इन दिनों, नकली हॉलीवुड बना मुंबई का असली बॉलीवुड मन में एक वितृष्णा-सी भर देता है कि हमारा सिनेमा को आवारा पूंजी ने कहां से कहां ला दिया। अपवाद अपनी जगह हैं। कमर्शियल सिनेमा धन–पशुओं की नौटंकी का सामान वाली दुकान बनकर रह गया है। ‘नौटंकी’ यहां अलग परिप्रेक्ष्य के रूप में पढ़ने का कष्ट करेंगे, वरना उसका भी एक सम्मानजनक मय्यार था और रहेगा।(School Indian Realistic Cinema)

सशर्त कहा जा सकता है कि उपभोक्तातंत्र के मानव विरोधी रुख अख्तियार किए बैठे मुंबई के निर्माता-निर्देशकों और अनेक अभिनेताओं ने बिमल राय का कुछ भी नहीं देखा होगा। इनमें से कइयों ने तो उनका नाम तक नहीं सुना होगा। आज के सिनेमा की यह एक बड़ी त्रासदी है, इसीलिए ऐसी फिल्में पर्दे पर जो रंगीनियां बिखेरती हैं उनका जीवन के किसी भी यथार्थ से रत्ती भर का नाता नहीं।

खैर, जिन बिमल दा को हम यहां याद कर रहे हैं-उनकी कालजयी फिल्मों में शुमार हैं: दो बीघा जमीन, परिणीता, देवदास, बिराज बहू, मधुमति, सुजाता, परख और बंदिनी… इत्यादि। इन्हीं फिल्मों के निर्माण और निर्देशन में बिमल रॉय को भारतीय सिनेमा का ‘महान स्कूल’ बनाया। उनके इंटरव्यू की एक बहुत पुरानी क्लिपिंग में कथन मिलता है कि, “मैं अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए अपने प्राणों की बलि तक दे सकता हूं। सिनेमा के जुनून ने मेरी रगों में यह जज्बा भी भरा है।” (School Indian Realistic Cinema)

बिमल रॉय 1909 में भारतीय उपमहाद्वीप के ढाका जिले के एक ग्रामीण जमींदार परिवार में जन्मे थे। पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद उन्होंने जन्मभूमि को अलविदा कह दिया और पारिवारिक विवाद के चलते जमींदारी भी छूट गई। मामूली पूंजी के साथ वह पहले कलकत्ता और बाद में मुंबई चले आए। नव यथार्थवादी सिनेमा से वह खासे प्रभावित थे। विक्टोरिया डी सिका की फिल्म ‘साइकिल चोर’ (1948) देखने के बाद वह मार्क्सवादी यथार्थवाद तथा समाजवाद में ढल गए। नतीजतन दर्शकों को ‘दो बीघा जमीन’ सरीखी फिल्म का शानदार तोहफा विमल रॉय की ओर से हासिल हुआ।

इस फिल्म ने उन्हें मील का पत्थर तो बनाया ही, साथ ही भारतीय सिनेमा का ‘शाश्वत प्रथम पुरुष’ भी बखूबी बना दिया। ‘बांग्ला बौद्धिक घराना’ भारतीय सिनेमा में कैसे शिखर–मुकाम तक पहुंचा, इसे जानना हो तो बिमल रॉय के सफर को करीब से देखना होगा। हिंदी के साथ-साथ उन्होंने अपनी मातृभाषा बांग्ला में भी ऐसी ही यथार्थवादी और समाजवाद से गहरे तक प्रेरित फिल्में बनाईं और इस जिंदा मुहावरे के नजदीक पहुंचे कि यह काम सिर्फ और सिर्फ बिमल रॉय ही कर सकते हैं। (School Indian Realistic Cinema)

उनके बाद यह सम्मानजनक भरोसा फिर किसी को नहीं मिला। न बांग्ला में न हिंदी में! महानता की ही पहली कतार के संगीतकार सलिल चौधरी को बिमल रॉय ने दो बीघा जमीन के लिए हिंदी सिनेमा में पहला ब्रेक दिया था। दो बीघा जमीन की कहानी भी सलिल चौधरी ने लिखी थी और अपने दोस्त बलराज साहनी को फिल्म की मुख्य भूमिका के लिए बिमल रॉय से मिलवाया था। 1953 में बनी दो बीघा जमीन ने न केवल बिमल रॉय को सर्वश्रेष्ठता के आसमान पर पहुंचा दिया बल्कि बलराज साहनी को भी ‘बलराज साहनी’ बनाया। सलिल चौधरी को भी अमरता की नई दहलीज तक पहुंचा दिया।

बिमल रॉय की फिल्म ‘मधुमति’ में भी संगीत सलिल चौधरी का था और उन्होंने इस फिल्म के लिए ऐसी धुनें रचीं जो आज भी आमों खास की ज़ुबान पर हैं।1953 में ही दो बीघा जमीन को बेशुमार राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो बीघा जमीन को इसलिए भी जबरदस्त मान्यता मिली और ख्याति हासिल हुई कि पहली बार पर्दे पर किसानी जीवन का यथार्थवादी चित्रण इतने सशक्त ढंग से किया गया था कि फिल्म से वाबस्ता का रेशा-रेशा भारतीय किसानी के अनछुए यथार्थवादी पहलुओं को शिद्दत के साथ प्रस्तुत करता था। (School Indian Realistic Cinema)

अपनी फिल्मों के लिए बिमल रॉय को कॉन्स फिल्म फेस्टिवल में अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड से नवाजा गया तो भारत में उन्हें दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिले तथा ग्यारह फिल्म फेयर पुरस्कार हासिल करने वाले वह पहले फिल्मकार हैं। उक्त रिकॉर्ड कायम हैं। बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के साहित्य से उन्हें खास लगाव था। परिणीता, देवदास और बिराज बहू शरतचंद्र की अहम कृतियां हैं जिन पर बिमल रॉय ने शानदार सिनेमाई रंग चढ़ाया। (School Indian Realistic Cinema)

देवदास ने यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार को रातों-रात ट्रेजडी किंग और अभिनय सम्राट बना दिया। यह तथ्य भी जिक्रे खास है कि बिमल रॉय का अति महत्वपूर्ण काम 1950 के बाद सामने आया था। भारत को आजादी 1947 में मिली थी। कुछ संदर्भों के हवाले से कहा जाता है कि वह इसे ‘अधूरी आजादी’ मानते थे क्योंकि सामाजिक स्तर पर सब कुछ ज्यों का त्यों था जो 47 से पहले था। आजादी को ‘सत्ता हस्तांतरण’ का नाम देने वालों में वह भी प्रमुख थे।

आजादी के ठीक बाद उन्होंने दो बीघा जमीन तो बनाई ही बल्कि तब के सामाजिक ताने-बाने में रची–बसी छुआछूत जैसी विभीषिका को पर्दे पर बिमल रॉय फिल्म ‘सुजाता’ के जरिए लेकर आए। फिल्म में सुजाता नाम की दलित लड़की खामोश रहने वाली, सुशील और त्यागी सेविका बनी है जबकि जब परिवार- परिवेश बदलता है तो वह एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी से जीवन जीने वाली शख्सियत बनती है। (School Indian Realistic Cinema)

मधुमति और राधा के पात्रों में वैजयंती माला का अभिनय बेमिसाल है। ऐसा अभिनय फिर वह किसी अन्य फिल्म में दोहरा नहीं पाईं। मधुमति फिल्म में सर्वथा पहली बार पूंजीवादी खलनायक का असली चेहरा (जो आज भी कायम है) बेनकाब किया गया था। कलात्मक ढंग से। हालांकि मधुमति को बिमल रॉय की पहली और बड़ी कमर्शियल हिट फिल्म के तौर पर भी जाना जाता है।

तब तक वह समानांतर सिनेमा की बुनियाद रख चुके थे और समकालीन समानांतर सिनेमा उन्हीं के बनाए सांचों के इर्द-गिर्द चलता और विस्तार पाता है। उसी में नए से नए जो आयाम जुड़ते जाते हैं वह सब बिमल रॉय स्कूल की देन है। अति प्रतिभाशाली सिनेमाकार बिमल रॉय ने 7 जनवरी 1966 में 56 साल की अल्प आयु में देह त्यागी और पीछे भारतीय सिनेमा की एक जबरदस्त परंपरा कायम कर गए जो शाश्वत है! प्रसंगवश, बिमल रॉय की मृत्यु के बाद भारतीय तथा अंतरराष्ट्रीय अखबारों ने सुर्खियों के साथ इस खबर को लगाया और संपादकीय लिखे।

(School Indian Realistic Cinema)

(जनचौक में वरिष्ठ पत्रकार अमरीक सिंह की रिपोर्ट)

(लोक माध्यम से साभार)


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