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Wednesday, April 30, 2025
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महात्मा गांधी की पहली बनारस यात्रा

 

पूनम शौर्य और शिवकुमार शौर्य, लखनऊ


1901 के अन्तिम भाग में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से भारत के लिए रवाना हुए। स्वदेश में बसकर ही जीविकोपार्जन और जन सेवा साथ-साथ करने का इरादा था। भारतीयों ने उन्हें प्रेमपूर्वक विदा किया किन्तु उनसे वचन ले लिया कि यदि उनकी आवश्यकता पड़ेगी तो उन्हें पुनः आना पड़ेगा
17 अक्तूबर को गांधी जी द० अफ्रीका से रवाना हुए। पहले मारीशस गये । 30 अक्तूबर को मारीशस के पार्टलुई में उतरे । भारतीयों ने खूब स्वागत किया। 19 नवम्बर को वहां से भारत की यात्रा पर चल पड़े। 14 दिसम्बर को पोरबन्दर होकर राजकोट पहुंचे। कलकत्ता में कांग्रेस का सत्रहवां अधिवेशन होने जा रहा था, उसमें शामिल होने की उनकी प्रबल इच्छा थी । इसलिए 17 को राजकोट से बम्बई के लिए रवाना हुए। 19 को बम्बई पहुंचे। बम्बई से वह उसी गाड़ी से कलकत्ता रवाना हुए जिसमें सर फीरोजशाह मेहता तथा मनोनीत अध्यक्ष डी० ई० वाछा थे । कलकत्ता में वह तिलक तथा अन्य प्रतिनिधियों के साथ रिपन कालेज में ठहराये गये। उस समय तक कांग्रेस केवल एक वाद-विवाद-सभा थी, स्वयंसेवकों या कार्यकर्ताओं में सेवा की कोई भावना न थी। गांधीजी ने कार्यालय को अपनी सेवाएं दी और गन्दगी देख कई बार स्वेच्छा से भंगी का काम भी किया। 23 तारीख से बीडेन स्क्वायर में सुसज्जित पण्डाल में कांग्रेस का अधिवेशन आरम्भ हुआ और 27 दिसम्बर तक चलता रहा। गांधीजी भी 5 मिनट के लिए बोले और उनका द० अफ्रीका सम्बन्धी प्रस्ताव पास हो गया। यहां गांधीजी गोखले के निकट सम्पर्क में आये और सदा के लिए उनके भक्त हो गये। प्रायः एक मास तक कलकत्ता में रहकर विभिन्न नेताओं से परिचय और सम्पर्क स्थापित करते रहे। वहीं प्रसिद्ध रसायनशास्त्री डा० प्रफुल्लचन्द्र राय से परिचय हुआ; गांधीजी उनकी सादगी और सेवा से बड़े प्रभावित हुए, जो अपने 800 रुपये मासिक वेतन में से केवल 40 रुपये अपने लिए रखकर शेष सब सेवा कार्यों में व्यय कर देते थे । कलकत्ता से गांधीजी थोड़े समय के लिए रंगून (वर्मा) गये। फरवरी 1902 में पुनः कलकत्ता लौटे और वहां गोखले के साथ ही रहे। उनकी सलाह से उन्होंने भारत भ्रमण का निश्चय किया। भारतीय जनता की ठीक-ठीक दशा जानने के लिए उन्होंने तीसरे दर्जे में यात्रा करने का संकल्प किया। गोखले ने उन्हें पूरी- मिठाई भरा एक टिफिन बाक्स दिया। गांधीजी ने एक कनवैस बैग खरीद लिया जिसमें वह अपना गर्मकोट, एक धोती, तौलिया और कमीज रखते थे। उनके पास एक कम्बल भी था । गोखले उन्हें हावड़ा स्टेशन पर छोड़ने आये थे । वह 21 या 22 फरवरी को कलकत्ता से राजकोट रवाना हुए और बीच में काशी, आगरा, जयपुर और पालनपुर में एक-एक दिन रुके।
काशी की गन्दगी और मन्दिरों के पास रहनेवाले भिक्षुकों का उन पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। अब काशी की इस पहिली यात्रा की कहानी उन्हीं के शब्दों में सुनिए :-
प्रथम काशी तीर्थ यात्रा महात्मा की जुबानी
सुबह मैं काशी उतरा। मैं किसी पण्डे के यहां उतरना चाहता था। कई ब्राह्मणों ने मुझे चारों ओर से घेर लिया। उनमें से जो मुझे साफ-सुथरा दिखाई दिया, उसके घर जाना मैंने पसन्द किया। मेरी पसन्दगी ठीक निकली। ब्राह्मण के आंगन में गाय बधी थी। घर दुमंजिला था। ऊपर मुझे ठहराया। मैं यथा विधि गंगा स्नान करना चाहता था। और तब तक निराहार रहना था । पण्डे ने सारी तैयारी कर दी। मैंने पहले से कह रक्खा था कि सवा रुपए से अधिक दक्षिणा मैं नहीं दे सकूगा , इसलिए उसी योग्य तैयारी करना। पण्डे ने बिना किसी झगड़े के मेरी बात मान ली। कहा- “हम तो क्या गरीब और क्या अमीर, सबसे एक ही सी पूजा करवाते हैं। यजमान अपनी इच्छा और श्रद्धा के अनुसार जो दक्षिणा दे दे वही सही।” मुझे ऐसा नहीं मालूम कि पण्डे ने पूजा में कोई कोर-कसर रखी हो। बारह बजे तक पूजा-स्नान से निवृत्त होकर मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करने गया। पर वहाँ जो कुछ देखा उससे मन में बड़ा दु:ख हुआ।”
काशी विश्वनाथ मंदिर का दर्शन
” सन् 1891 ई० में जब मैं बम्बई में वकालत करता था, एक दिन प्रार्थना समाज मन्दिर में काशी यात्रा पर एक व्याख्यान सुना था। इसलिए कुछ निराशा के लिए तो वहीं से तैयार हो गया था, पर प्रत्यक्ष देखने पर जो निराशा हुई वह तो धारणा से अधिक थी। संकरी- फिसलनी गली से हारकर जाना पड़ता था शान्ति का कहीं नाम नहीं। मक्खियाँ चारों ओर भिनभिना रही थी। यात्रियों और दुकानदारों का हो-हल्ला असाह्म मालूम हुआ।
“जिस जगह मनुष्य ध्यान एवं भगवच्चिन्तन की आशा रखता हो, वहां उनका नामोनिशान नहीं, ध्यान करना हो तो वह अपने अन्तर में कर ले | हा, ऐसी भावुक बहनें मैंने जरूर देखीं, जो ऐसी ध्यान-मग्न थी कि उन्हें अपने आस पास का कुछ भी हाल मालूम न होता था। पर इसका श्रेय मन्दिर के संचालकों को नहीं मिल सकता। संचालकों का कर्तव्य तो यह था कि काशी विश्वनाथ के आस-पास शान्त, निर्मल, सुगन्धित, स्वच्छ वातावरण-क्या बाह्य और क्या अन्तरिक– उत्पन्न करें, और उसे बनाये रखे| पर इसकी जगह मैंने देखा कि वहाँ नये-से-नये तर्ज की मिठाई और खिलौनों की दुकानें लगी हुई थी।
“मन्दिर पर पहुँचते ही मैंने देखा कि दरवाज़े के सामने सड़े हुए फूल पड़े थे और उनमें से दुर्गन्ध निकल रही थी। अन्दर बढ़िया संगमरमरी फर्श था। उस पर किसी अन्ध-श्रद्धालु ने रुपए जड़ रखे थे; रुपयों में मैल-कचरा घुसा रहता था।
“मैं ज्ञानवापी के पास गया। यहां मैंने ईश्वर की खोज की। वह होगा; पर मुझे न मिला। इससे मै मन-ही-मन घुट रहा था। ज्ञानवापी के पास भी गन्दगी देखी। भेंट रखने की मेरी जरा भी इच्छा न हुई, इसलिए मैंने तो सचमुच ही एक पाई वहाँ चढ़ाई। इस पर पण्डा जी उखड़ पड़े। उन्होंने पाई उठाकर फेंक दी और दो-चार गालियां सुनाकर बोले— “तू इस तरह अपमान करेगा तो नरक में पड़ेगा।”
“चुप रहा। मैने कहा- “महाराज। मेरा तो जो होना होगा वह होगा, पर आपके मुंह से हलकी बात शोभा नहीं देती। यह पाई लेना हो तो ले वर्ना इसे भी गँवायेंगे।” “जा, तेरी पाई मुझे नहीं चाहिए” कह कर उन्होंने ज्यादा भला-बुरा कहा। मै पाई लेकर चलता हुआ। मैंने सोचा कि महाराज ने पाई गंवाई और मैंने बचा ली। पर महाराज पाई खोने वाले न थे। उन्होंने मुझे फिर बुलाया और कहा – “अच्छा रख दे मै तेरे जैसा नहीं होना चाहता। मैं न लूं तो तेरा बुरा होगा।”
“मैंने चुपचाप एक पाई दे दी और एक लम्बी सांस लेकर चलता बना। इसके बाद भी दो-एक बार काशी-विश्वनाथ गया हूँ, पर वह तो तब, जब महात्मा बन चुका था । इसलिए 1902 के अनुभव भला कैसे मिलते ? खुद मेरे ही दर्शन करने वाले मुझे क्या दर्शन करने देते ? महात्मा के दुःख तो मुझ जैसे महात्मा ही जान सकते हैं । किन्तु गन्दगी और हो-हल्ला तो जैसे -के-तैसे ही वहाँ देखे ।
“परमात्मा की दया पर जिसे शंका हो, वह ऐसे तीर्थ क्षेत्रों को देखे। वह महायोगी अपने नाम पर होनेवाले कितने ढोंग, अधर्म और पाखण्ड इत्यादि को सहन करते हैं। उन्होंने तो कह रखा है: —
ये यथा मां प्रपद्यते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
अर्थात् जैसा करना वैसा भरना । कर्म को कौन मिथ्या कर सकता है ? फिर भगवान् को बीच में पड़ने की क्या जरूरत है ? वह तो अपने कानून बतलाकर अलग हो गया।
काशी में श्रीमती बेसेण्ट के दर्शन

“यह अनुभव लेकर मैं मिसेज वेसेण्ट के दर्शन करने गया। वह अभी बीमारी से उठी थीं। यह मैं जानता था। मैंने अपना नाम पहुँचाया। वह तुरन्त मिलने आई। मुझे तो सिर्फ दर्शन ही करने थे। इसलिए मैंने कहा- “मुझे आपकी तबियत का हाल मालूम है, मैं तो सिर्फ आपके दर्शन करने आया हूँ। तबियत खराब होते हुए भी आपने मुझे दर्शन दिये, केवल इसी से मैं सन्तुष्ट हूँ, अधिक कष्ट मै आपको नहीं देना चाहता।
“इसके बाद मैंने उनसे बिदा ली।”
गोखले के पत्र में भी काशी का वर्णन
गांधी जी काशी, आगरा, जयपुर, पालनपुर होते हुए 26 फरवरी 1902 को राजकोट पहुंचे। वहां से 4 मार्च को जो पत्र उन्होंने गोपालकृष्ण गोखले को लिखा था उसमें भी काशी के सम्बन्ध में उनके मन पर पड़े बुरे प्रभाव की ध्वनि है :-
“गरीब मुसाफिरों के लिए बनारस शायद सबसे बुरा स्टेशन है। रिश्वत का दौरदौरा है। जबतक आप पुलिस सिपाहियों को घूस देने के लिए तैयार न हों तबतक अपना टिकट पाना बहुत कठिन है। वे दूसरों के साथ-साथ मेरे पास भी कई बार आये और बोले कि अगर हमें इनाम (या रिश्वत ? ) दें तो हम आपके टिकट खरीद देंगे। कई लोगों ने इस प्रस्ताव का फायदा उठाया। हममें से जिन्होंने यह मंजूर नहीं किया उन्हें खिड़की खुलने के बाद भी करीब-करीब एक घण्टे तक राह देखनी पड़ी। तब कही टिकट मिले। यदि हम कानून के इन संरक्षको की एक-दो ठोकरों का उपहार लिये बिना ही वैसा कर पाये तो यह हमारा सौभाग्य ही समझिए। इसके विपरीत मुगलसराय का टिकट मास्टर बहुत सज्जन था । उसने कहा कि मैं राजा और रंक में भेद नहीं करता।”
यह है गांधी जी की दृष्टि में 1902 ई० की काशी।
Refarence- UP State Archives Library Lucknow
~पूनम शौर्य और शिवकुमार शौर्य, लखनऊ

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